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भगवतीसूत्रे च यावत्पदेन- केवइयं परिक्खेवे णं ? गोयमा ! दो जोयणसयसहस्साई चक वालविखंभेग, पन्नरससयसहस्साई, एक्कासीयं च सहस्साई, सयं च इगूण याले किंचिविसेसूर्ण परिक्खेवेणं पण्णत्ते" इत्यादि ! एतस्य चान्ते-" कम्हाणं भंते ! लवण समुद्दे जंबुद्दीवे दीवे नो उन्बीलेइ ? नो उन्धीलेइ ? " इत्यादि प्रश्ने भगवानाह-'गोयमा ! जंबुद्दोवे दीवे भरहेरवएमु वासेसु अरहंता, चक्कवट्ठी" इत्यादि संग्राह्यम् ।
ये । यहां जो यह ( यावत् )पद प्रयुक्त हुआ है उससे “ केवइयं परिक्खेवेणं गोयमा ! दो जोयण सयसहस्साई चकवालविक्खंभेणं पन्नरससयसहस्साइं, एक्कासीयं च सहस्साई सयं च इगूणयाले किचिविसेसूर्ण परिक्खेवेणं पण्णत्त) इत्यादि, इस पाठ का संग्रह हुआ है । इसके अन्त में (कम्हा णं भंते ! लवणसमुद्दे जंबुद्दीवे दीवे नो उन्वीलेइ ?) इस प्रश्न के होने पर भगवान ने कहा (गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे भरहेर वएसु वासेसु अरहंता चकवट्टी ) इत्यादि का संग्रह हुआ है । तात्पर्य इस पाठ का इस प्रकार से है-हे भदन्त ! लवणसमुद्र का घेर कितना कहा गया है ? तो इसका उत्तर इस प्रकार से है-हे गौतम ! दो लाख योजन का तो इसका चक्रवाल विष्कंभ है तथा परिक्षेप पन्द्रहलाख इक्यासी हजार एकसौ उनचालीस योजन से भी कुछ कम कहा गया है इत्यादि, फिर इस सूत्रके अन्त में ऐसा प्रश्न किया है कि हे भदन्त ! लवण समुद्र जंबूद्वीप को क्यों नहीं भर देता (डुवा देता ) है इत्यादि ?
राय छ-( केवइयं परिक्खेवेण गोयमा ! दो जोयणसयसहस्साइ चकवाल विक्खंभेण पन्नरससयसहस्साई, एक्कासीयं च सहस्साई सय च इग्णयाले किंचिविसेसूण परिक्खेवेणं पण्णत्ते) वजी ते सूत्राने सन्त नीचे प्रमाणे प्रश्नोत्तर - छ.-(कम्हाणं भंते ! लवणस मुद्दे जंबूद्दीवे दीवे नो उब्बीलेइ) (गोयमा ! जंबूहीवे दीवे भरहेरवरसु वासेसु अरहता चक्कवट्टी) त्यादि-हवे ते સૂત્રપાઠને ભાવાર્થ આપવામાં આવે છે.
प्रश्न-" 3 ward eqणुसमुद्री घेराव। (५२ि५) सो ४ो छे!"
उत्तर- गौतम ! तेन यास विस (परिध) मे. साम योगन કહ્યો છે. અને તેને પરિક્ષેપ પંદર લાખ, એકયાસી હજાર, એક આંગણું ચાલીસ (૧૫૮૧૧૩૯) એજનથી સહેજ ન્યૂન કહ્યો છે.
પ્રશ્ન--હે ભદન્ત! લવણસમુદ્ર જબૂદ્વીપને કેમ ભરી દેતું નથી ? એટલે
श्री.भगवती सूत्र:४