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प्रमैयचन्द्रिका टीका श० ५ उ0 २ सू० ३ लवणसमुद्र निरूपणम् १४१ ___टोका-पूर्व पृथिवीकाय-वनस्पतिकाय जीव प्रभृति शरीर सम्बन्धि वक्तव्यता प्रतिपादिता, तदधिकारात् जलकायरूपलवणसमुद्रस्य स्वरूपं निरूपयितुमाह'लवणेणं भंते ! ' इत्यादि । गौतमः पृच्छति-' लवणेणं भंते समुद्दे ' हे भदन्त ! लवणः खलु समुद्रः 'चक्वारविक्खं भेणं ' चक्रवालविष्कम्भेग, चक्रवालं गोलाकारमण्डलं, परिधिरित्यर्थः, तस्य विष्कम्भेण विस्तारेण तेन च 'केवइयं' कियान् पण्णत्ते ? प्रज्ञप्तः ? कथितः ? भगवान् आह ' एवं णेयव्वं ' एवम् उक्ता लापानुकूलतया जीवाभिगमोक्तं लवणसमुद्रमूत्रम् नेतव्यं-जातव्यम् , तदवधि माह- जाव-भोगट्टिई, लोगाणुभावे ' यावत् लोकस्थितिः, लोकानुभावः, तथा
टिकार्थ- ऊपर के प्रकरण में सूत्रकार ने पृथिवीकाय, वनस्पतिकाय आदि जीवों के शरीर संबंध में अपनेविचार प्रकट किये है अब वे इस सूत्र द्वारा जलकायरूप लवणसमुद्र का निरूपण कर रहे है इस विषय में गौतमस्वामी प्रभुसे पूछते है कि (लवणेण भंते !) हे भदन्त ! लवण " समुद्दे ” समुद्र " चक्कवालविक्खंभेणं " चक्रवाल परिधि के प्रमाण की अपेक्षा से " केवइयं पण्णत्ते" कितना कहा गया है। गोल आकार वाला जो मण्डल है उसका नाम विष्कंभ-परिधि है। इस के उत्तर में प्रभु कहते हैं " एवं णेयव्वं " उक्त आलाप के अनुकूल होने से इस विषय में जीवाभिगम सूत्र में कहा हुआ लवणसमुद्र सूत्र यहां ग्रहण करना चाहिये । यह लवणसमुद्र सूत्र इस विषय में कहांतक ग्रहण करना चाहिये-तो सूत्रकार कहते हैं कि " जाव लोयदिई लोगाणुभावे" लोकस्थिति और लोकानुभाव इन पदों तक वह यहां ग्रहण करना चाहि
ટીકાઈ–ઉપરના પ્રકરણમાં સૂત્રકારે પૃથ્વીકાય, વનસ્પતિકાય આદિના શરીર વિષેના તેમના વિચારો પ્રકટ કર્યા છે. હવે આ સૂત્ર દ્વારા તેઓ જળકાયરૂપ લવણસમુદ્રનું નિરૂપણ કરે છે ગોતમ સ્વામી મહાવીર પ્રભુને પૂછે છે " लवणेण भते समुहे" महन्त ! सवसमुद्रने "चकवालविक्ख'भेण' केवइ पण्णत्ते ? " यस वि०४ सो यो छ ? मेटले सवसमुद्रना परिध a छ ? ( ४।२ भजने विes ) परिध ४ छ. “ एवं णेयव्यं ” निगम सूत्रमा मापे सवसमुद्रसूत्र 24। प्रश्नना उत्त२३५ ગ્રહણ કરવું જોઈએ. તે સૂત્રમાં કહ્યા અનુસાર કથન અહીં પણ સમજવું. આ विषयमा ते " समुद्र" सूत्र या सुधी अड) ४२७१ (जाव लोयदिइ लोगाणु भावे) स्थिति मने बानुभव पर्यत सूत्र अक्षय ४२. डी. २ "जाव ( यावत)" ५४ १५२।युं छे, तेना द्वारा नायने। सूत्र असे
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૪