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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श० ६ उ० ५ सू.१ तमस्कायस्वरूपनिरूपणम १०७५ 'देवव्यूहः' इति वा, देवानां दुर्भेद्यत्वात् चक्रादिव्यूह इव ' देवव्यूहः' इतिनाम १० । 'देवपरिघः' इति वा, देवानामातङ्कजनकतया मनोविघातहेतुत्वेन ' देव. परिघः' इति नाम ११, ' देवप्रतिक्षोभ ' इति वा, देवानां महाक्षोभोत्पादकत्वात् 'देवपतिक्षोभः' इति नाम १२, 'अरुणोदकः समुद्रः' इति वा, अरुणोदकसमुद्रस्य विकारात्मकत्वात् ' अरुणोदकसमुद्रः' इति वा नाम १३। इति तमस्कायस्य त्रयो. दश नामानि प्रदर्शितानि । अथ तमस्कायपरिणाममाह='तमुक्काए णं भते ! किं पुढविपरिणामे, आउपरिणामे, जीवपरिणामे, पोग्गलपरिणामे ? ' हे भदन्त ! तमस्कायः खलु कि पृथिवीपरिणामः, अथवा अप्परिणामः, अथवा जीवपरिणामः:, पुद्गल परिणामो ण्य है। चक्रादिव्यूहकी तरह यह देवों द्वाराभी दुर्भद्य होने के कारणइसका दशवां नाम देवव्यूह है। देवों को आतंक जनक होने के कारण इनके मन का विघात करने वाला होनेसे इसका ग्यारहवां नाम देवपरिघ है। देवों के लिये क्षोभ का कारण, होने से इसका १२ वां नाम देवप्रतिक्षोभ है। तथा अरुणोदक समुद्र के जल का विकाररूप होने के कारण इसका तेरहवां नाम अरुणोदक समुद्र है। इस प्रकार से ये तेरह सार्थक नाम तमस्काय के कहे गये हैं। ___अघ गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं कि यह तमस्काय किस पदार्थ का परिणाम है-(तमुक्काए ण भंते! किं पुढविपरिणामे ? आउपरिणामे जीव परिणामे ? पोग्गलपरिणामे ?" हे भदन्त ? यह तमस्काय क्या पृथिवी का परिणाम है ? या जल का परिणाम है ? या जीव का परिणाम है ? या पुद्गल का परिणाम है ?-किसका परिणाम है ? इसके उत्तर में (૧૦) ચકાદિ મૂહને ભેદવાનું કામ દેવ દ્વારા પણ અશકય હોય છે, તે ४१२0 तेनु इस नाम “ १०५७” छे. (११) हेवामा मात' (मय) नो જનક હોવાને કારણે અને તેમના મનને વિઘાત કરનારે હોવાને લીધે તેનું અગિયારમું નામ “દેવપરિઘ ” છે. (૧૨) દેવોમાં ભને જનક હોવાને ४॥२तेनु पारभु नाम " प्रतिक्षाल" छे. (१3) तथा १२६४ समु. દ્રના જળના વિકાર રૂપ હોવાથી તેનું તેરમું નામ “ અરુણદક સમુદ્ર” છે. આ રીતે તમસ્કાયના તેર સાર્થક ( અર્થ પ્રમાણેનાં) નામ કહ્યાં છે. गौतम स्वामी महावीर प्रसुने पूछे छे ( तमुक्काए ण भते ! कि पुढविपरिणामे ? आउपरिणामे १ जीवपरिणामे ? पोग्गल परिणामे ? महन्त ! આ સમસ્યાય શું પૃથ્વીકાયનું પરિણામ છે? કે જળનું પરિણામ છે? કે જીવનું પરિણામ છે? કે પુલનું પરિણામ છે? તે કેના પરિણામરૂપ છે ? श्री. भगवती सूत्र:४
SR No.006318
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1142
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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