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________________ ७० भगवतीसूत्रे टीका- महावीरस्वामिनः सकाशाद् वैरोचनेन्द्रबलिराजस्य समृद्धयादिकं श्रुत्वा द्वितीयो गणधरोऽनिभूतिर्वन्दनपूर्वकं नमस्कुर्वन् महावीरप्रभु नागकुमारेन्द्र धरणस्य ऋद्धयादिकं जिज्ञासमानः पृच्छति-'भंते!-त्ति, भगवं'इत्यादि । हे भदन्त ! बलिनामा औदीच्यासुरकुमारेन्द्रः उत्तरदिशाधिपतिः 'वइरोयर्णिदे' वैरोचनेन्द्रः-पूर्व व्याख्यातम् । 'एवं महिडीए'त्ति, एवं महर्द्धिकः यथोक्तदिव्यऋद्धिसम्पन्नः । 'जाव-एवइयं च णं' ति । यावत्-एतावच्च, यावत्पदम् अशेषार्थकतया-पूर्ववर्णितार्थवाचकम् । 'पभू' त्ति । प्रभुः समर्थः । जोईसिया वि-नवरं दाहिणिल्ले सव्वे अग्गिभूई पुच्छई, उत्तरिल्ले सव्वे वाउभूई पुच्छइ) इसी तरहसे यावत् स्तनितकुमार, वाणमन्तर, ज्योतिषिक भी जानना चाहिये। विशेषता यह है कि समस्त दक्षिणदिशाके इन्द्रोंके विषयमें अग्निभूति पूछते हैं और उत्तरदिशाके इन्द्रोंके विषयमें वायुभूति पूछते हैं ॥सू० ८॥ ___टीकार्थ- महावीरस्वामी से वैरोचनेन्द्र बलिराज की समृद्धयादिक सुनकर द्वितीय गणधर अग्निभूतिने वन्दना नमस्कार करके महावीर प्रभुसे नागकुमार धरणेन्द्र की ऋद्धयादिक जाननेकी इच्छा से पूछा-कि "भंते" हे भदन्त ! बलि नाम का जो औदीच्य असुरकुमारेन्द्र उत्तरदिशाधिपति वैरोचनेन्द्र है उसके विषयमें तो आप से वृत्तांत सुना है इससे हम यह जान गये हैं कि वह 'एवं महिड्डीए' इस प्रकारकी महाऋद्धि से युक्त है। 'जाव एवइयं च णं पभू' और यावत् वह इस प्रकारको विक्रिया करसकने में समर्थ है। यहां 'यावत्' पद से पूर्व में वर्णित समस्त अर्थ गृहीत हुआ है। परन्तु अब मैं यह जानना जोइसिया व नवरं दाहिणिल्ले सव्वे अग्गिभूई पुच्छइ उतरिल्ले सव्वे वाउभूई पुच्छइ એજ પ્રમાણે સ્વનિતકુમાર વાણુમંતર અને જતિષિક દેના વિષયમાં પણ સમજવું વિશેષતા એ છે કે સમસ્ત દક્ષિણ દિશાના ઈન્દ્ર વિષે અગ્નિભૂતિ પૂછે છે અને ઉત્તર દિશાના દેવો વિશે વાયુભૂતિ મહાવીર પ્રભુને પૂછે છે. સૂ૮ * ટીકાથ– વૈરોચનેન્દ્ર બલિરાજની સમૃદ્ધિ આદિનું વર્ણન મહાવીર સ્વામીને મુખેથી સાંભળીને બીજા ગણધર વાયુભૂતિ અણગારે નાગકુમારેન્દ્ર ધરણની સમૃદ્ધિ આદિ गुवानी थी वह नभ२४२६ ४रीने महावीर प्रभुने पूछयु "भंते" है प्रसा अत्ताधिपति शयनेन्द्र मलि "एवं महिडीए" 20 ४२नी भा समृद्धि मा था युश्त छ, " जाव एवइयं च णं पभू" मने मा प्रारनी विणशतिवाणे છે એ વાત તે આપના મુખેથી સાંભળી અહીં યાવત્ પદથી પૂર્વક સમસ્ત સૂત્રપાઠ શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૩
SR No.006317
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages933
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size52 MB
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