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________________ ७३४ भगवती सूत्रे रसी नयरी' एषा खलु वाराणसी नगरी, 'एस खलु रायगिहे नयरे' एतत् खलु राजगृहं नगरम्, 'एस खलु अंतरा एगेमहं जणवयवग्गे' एष खलु अन्तरा मध्ये एको महान् जनपदवर्ग: ' णो खलु एस महं' नो खलु एषा मम 'वी रियलद्धी' वीर्यलब्धिः, 'वेउच्चियलद्धी' वैक्रियलब्धिः 'विभंगणाणलद्धी ' विभगज्ञानलब्धिः 'saी' ऋद्धिः 'जुत्ती' द्युतिः, 'जसे' यशः, 'बले' बलम् 'वीरिए' वीर्यम्, 'पुरिसकारपरक मे' पुरुषकारपराक्रमः पुरुषार्थप्रतापः 'लड़े, पत्ते, अभिसमण्णागए ' लब्धः, प्राप्तः, अभिसमन्वागतः, उपसंहरति- 'से से दंसणे' इत्यादि । तत् तस्य अनगारस्य मायिनः दर्शने 'विवच्चासे' व्यत्यासो विपर्यासो भवति, 'से तेणट्टेणं' तत् तेनार्थेन विपरीतदशनेन 'जाव - पास ' यावत् पश्यति यावत्करणात् 'नो तथाभावं जानाति, पश्यति, अपितु अन्यथाभाव जानाति' इति संग्राह्यम् ॥ ० १ ॥ वाणारसी नयरी' यह वाणारसी नगरी हैं, एस खलु रायगिहे नयरे' यह राजगृह नगर है, 'एस खलु अंतरा एगे महं जणवयवग्गे' इन दोनोंके बीच में यह एक विशाल जनपद समूह है । 'णो खलु एस मह वीरियलद्धी' सो यह मेरी वीर्यलब्धि नहीं है, 'वेउब्वियलद्धी' वैक्रिय लब्धि नहीं है 'विभंगणाणलद्धी' 'विभंगज्ञानलब्धि नहीं है। लद्वे पत्ते अभिसमण्णागए' मेरे द्वारालब्ध, प्राप्त एवं अभिसमन्वागत 'इड्ढी' ऋद्धि 'जुत्ती' धुति, 'जसे' यश, 'बले' बल, ' वीरिए' वीर्य' और 'पुरिसक्कारपरक्कमे' पुरुषकार पराक्रम मेरे नहीं है । इस तरह 'से से दंसणे' उस मायी अनगार के दर्शन में 'विवच्चासे भव' विपर्यास होता है । 'से तेणट्टेणं जाव पासइ - इस प्रकार वह मायी मिथ्यादृष्टि अनगार नगरी छे, 'एस खलु रायगिहे नयरे' मा शनगृह नगर छे, 'एस खलु अंतरा एगे महं जणवयवग्गे ' ते अन्नेनी वस्ये मोड विशाल यह समूह छे. 'णो खलु एस महं वीरियलद्धी ' तो मा મારી વીચ લબ્ધિ નથી મારી વીય લબ્ધિના પ્રભાવથી रमा मन्यु ं नथी, 'वेउन्वियलद्धी' मा भारी वैडियसन्धि नथी, 'विभंगणाणलद्धी' मा भारी विभंगज्ञानसन्धि नथी. 'लद्धे पत्ते, अभिसमण्णागर' भाग द्वारा सम्ध प्राप्त भने अभिसमन्वागत 'इडूढी, ऋद्धि 'जुत्ती' धुति, 'जसे' ४श, 'बले' मण, 'वीरिये' वीर्य' भने 'पुरिसक्कारपरक मे' पुरुष अ२ परार्डेभ भारा नथी. या रीते ' से से दंसणे' ते भायी आशुगारनां दर्शनभां (लेवानी रीतभां) 'विवचा से भवइ' विपर्यासलाव - विपरीतता भावी लय छे. 'से तेणद्वेणं जाव पासइ ' हे गौतम! ते आये में भोवुं उद्धुं छे ट्ठे ते भायी , શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૩
SR No.006317
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages933
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size52 MB
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