SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 668
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६५४ भगवतीसूत्रे पुद्गलान् औदारिकशरीरभिन्नान् वैक्रियपुद्गलान् 'अपरियाइत्तो' अपर्यादाय अपरिगृह्य 'वेभार पव्वयं' वैभारं पर्वतं वैभारनामकं राजगृहक्रीडापर्वतम् 'उल्लंघेत्तए वा' उल्लङ्घयितुं वा ? एकवारम् ‘पल्लंघेत्तए वा' प्रलङ्घयितुं वा अनेकवार 'पद्म' प्रभुः समर्थः किम् ? भगवानाह-‘णो इणढे समढे' नायमर्थः समर्थः नैवं भवितुमईति, बाह्यवैक्रियपुद्गलपरिग्रहणं विना वैक्रियक्रियया एवं कर्तुमशक्यत्वात् । तदेवाह-'अणगारे णं भंते ! गौतमः पृच्छति-हे भदन्त ! अनगारः खलु 'भावियप्पा' भावितात्मा 'वाहिरए पोगले' बाह्यान् पुद्गलान् 'परियाइस प्रकार से है-अणगारे णं भते' इत्यादि । गौतम प्रभु से पूछते हैं कि हे भदन्त ! जो ‘भावियप्पा अणगारे' भावितात्मा अनगार हैं वह 'बाहिरए पोग्गले' वाहिरी पुद्गलों को अर्थात्-औदारिक शरीर से भिन्न चैक्रियपुद्गलोंको 'अपरियाइत्ता' विना ग्रहण किये 'वेभार पव्वयं' वैभार इस नाम के पर्वत को जो कि राजगृह नगरका क्रीडा पर्वत है 'उल्लंघेत्तए वा' एक बार उलंघन करने के लिये 'पलंघेत्तः ए वा' अथवा अनेक बार उल्लंघन करने के लिये 'पभू' समर्थ है क्या ? इसका उत्तर देते हुए प्रभु कहते है कि-'गोयमा' हे गौतम ! णो इणहे समडे' यह अर्थ समर्थ नहीं-अर्थात् ऐसी बात नहीं है, क्योंकि जबतक बाह्य-वैकिय पुद्गलों का ग्रहण नहीं किया जायगा तब तक वैक्रियशरीरके निर्माण होने रूप क्रियाका होनाही नहीं हो सकता है। इसीबातको आगेके सूत्र द्वारा प्रकट किया जाता है(अणगारेणं भंते भावियप्पा बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता) गौतम प्रभु भंते ! त्या सूत्री माया छ- गौतम स्वामी महावीर प्रभुने पूछे छे - 'भावियप्पा अणगारे सह-त! माविता ॥२ 'बाहिरए पोग्गले' मा Yखान मेवे मोहा२ि४ शरी२था भिन्न मे वय लान 'अपरियाइत्ता' अहए। या विना, 'वेभारं पव्वयं' भार पर्वतन (वैभार पर्वत २४ नगरने। ४ीयत छ.) 'उलंघेत्तए वा,' मे पा२ मेगवाने अथवा 'पलं वेचए' भने पार भ गवान शु “पभू समय छ २i ? उत्तर- 'गोयमा ! णो इण? समढे गौतम ! मे सनतुनथी. ४१२ જ્યાં કે સુધી બાહ્ય-વૈયિ પુગલોને ગ્રહણ કરવામાં ન આવે ત્યાં સુધી વૈક્રિયશરીરનું નિર્માણ થવાની ક્રિયા જ સંભવી શકતી નથી. એ જ વાતને હવે પછીનાં સૂત્ર દ્વારા પ્રકટ કરવામાં આવે છે. प्रश्न- 'अणगारे णं भंते ! भावियप्पा बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता' શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૩
SR No.006317
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages933
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size52 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy