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________________ भगवतीस्त्रे 'भंते ! त्ति' हे भदन्त ! प्रमत्तसंयतस्य खलु प्रमत्तस्य मोहनीयादि कर्मोदय प्रमादसम्पन्नस्य सतः संयतस्य अनगारस्य ‘पमत्तसंजमे वट्टमाणस्स' त्ति, प्रमत्तसंयमे वर्तमानस्य न तु अन्यस्मिन् संयमे इत्यर्थः 'सव्वा वि य णं' सर्वा अपि च खलु सर्वकाल सम्भवाऽपि च ‘पमत्तद्धा' प्रमत्ताद्धा प्रमत्तस्य अद्धा प्रमत्ताद्धा प्रमत्तगुणस्थानककालः 'कालओ' कालतः प्रमत्ताद्धा काल समूहलक्षणं कालमपेक्ष्य केवच्चिरं होइ' कियचिरं भवति, कियन्तं कालं यावद् भवति? प्रमत्तसंयम पालयतः प्रमत्तसंयमिनः सर्वः संमिल्य कियत् प्रमत्तसंयमकालो भवति इति प्रश्नः । भगवानाह-मंडियपुत्ता इत्यादि । हे मण्डितपुत्र ! 'एगजीनं पडुच्च' एकजीवं प्रतीत्य आश्रित्य 'जहण्णेणं' जघन्येन 'एक समयं प्ररूपित करते हैं-मंडितपुत्र प्रभुसे प्रश्न करते हुए पूछते हैं कि 'भंते' हे भदन्त ! 'पमत्तसंजयस्स' प्रमत्तसंयत के कि जो मोहनीय आदि कर्मों के वशवर्ती बना हुआ है और इस कारण से जो ‘पमत्तसंजमे वट्टमाणस्स' प्रमत्तसंयम में वर्तमान है उसके वह प्रमत्तदशा कबतक रहती है यही बात 'सब्वा विय णं पमत्तद्धा कालओ केवचिरं होइ' इस मूत्र पाठ द्वारा पूछी गई है अर्थात् छठे गुणस्थान में रहनेवाले प्रमत्तसंयमी का छठे गुणस्थानका जो समस्त काल है उसमें से वह काल कालकी अपेक्षा कितना है ? अर्थात प्रमत्त संयतजीव कितने ममय तक प्रमत्त संयत्त रहता है ? तो इसका उत्तर देते हुए प्रभु मंडितपुत्र से कहते हैं कि "मंडियपुत्ता' हे मंडितपुत्र "एगंजीवं पडुच्च' एक जीवको अपेक्षा से जो इस बातका विचार किया जावे तो वह काल जघन्यरूप में 'एक समयं' अपेक्षामे मा सूत्रमा प्र३५९॥ ४॥ छ-भडितपुत्र पूछे छ-'भंते ! महन्त ! 'प्रमत्तसंजयस्स' मारनीय माहि ना यथा उत्पन्न ये। प्रभाहने अधीन भनेता 'प्रमत्तसंजमे वट्टमाणस्स' प्रमत्त संयममा वर्तता, अमत्त संयतनी ते પ્રમત્ત દશા કયાં સુધી ચાલુ રહે છે? એજ વાત સૂત્રકારે નીચેના સૂત્રપાઠ દ્વારા मनावी -'सव्वा वि य णं पमत्तद्धा कालओ केवचिर होइ ?' ४३वान तात्पर्य એ છે કે પ્રમત્તસંયત જવ કેટલા સમય સુધી પ્રમત્ત રહે છે? અથવા આ પ્રમાણે પણ સમજાવી શકાય છઠ્ઠા ગુણસ્થાનમાં રહેલા પ્રમત્ત સંયમીને એ ગુણસ્થાનમાં રહેવાને જે સમસ્ત કાળ છે, તે કાળમાંથી પ્રમદશામાં રહેવાને કાળ કેટલા છે ? तेन वाम महावीर प्रभु नान्य प्रमाणे आपे छ-'मंडियपुत्ता ! भडितपुत्र! 'एगं जीवं पडुच्च' से पनी अपेक्षामे तनो विया२ ४२वामा सावेत ते श्री. भगवती सूत्र : 3
SR No.006317
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages933
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size52 MB
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