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भगवतीसूत्रे यावच्च खलु स जीवः 'सया समियं' सदा समितम् ‘णो एयइ ' नो एजते, 'जाव-नो परिणमई' यावत् नो परिणमति, यावत्करणात् 'नो व्येजते' इत्यादि संग्राह्यम्, 'तावं च णं से जीवे' तावच खलु स जीवः 'नो आरंभई' नो आरभते, नो सारंभई' नो संरभते 'नो समारंभइ' नो समारभते. 'नो आरंभे वट्टई' नो आरम्भे वर्तते 'नो सारंभे वट्टई' नो संरम्भे वर्तते 'नो समारंभे वट्टई' नो समारम्भे वर्तते प्रवर्तते, ' अणारंभमाणे' अनारभमाणः 'असारंभमाणे' असंरभमाणः 'असमारंभमाणे' असमारभमाणः,
__ अथ द्वितीयवाक्यमनुवदति- आरभे अवट्टमाणे' आरम्भे अवर्तमानः जबतक वह जीव 'सया समियं णो एयइ' रागादिक भावों से रहित हो जाता है कभी भी किसी अवस्था में वह रागद्वेष आदि भावों को नहीं करता है यावत् वह उन२ भावरूप परिणमित नहीं होता है, अर्थात् एजनादि क्रिया से रहित होजाता है। यहां यावत् पद से 'न व्येजते' आदि पूर्वोक पाठ ग्रहण किया गया है । तब उसमें ऐसी शक्ति आजाती है कि वह जीव 'नो आरंभइ' आरंभ नहीं करता हैं, 'नो सारंभई' संरंभ नहीं करता हैं, 'नो समारंभइ' समारंभ नहीं करता है। 'नो आरभे वट्टई' आरंभ में नहीं वर्तता है, 'नो सार भे वट्टई' संरभ में नहीं वर्तता है 'नो समारंभे वइ । समारंभ में नहीं वर्तता हैं । इस 'अनारंभमाणे' अनारंभ करता हुआ, 'असार भमाणे' असंरभ करता हुआ, 'असमारंभमाणे' असमारभ 'सया समियं णो एयइ' २॥ वाथी २हित 4U 14 2-31/ सया. गोमा त रागद्वे५ ४२. नथी, (यावत) मने न्यां सुधी ७ ते १३५ परिभत नथी. त्या सुधा 'नो आरंभइ, नो सारंभइ, नो समारंभइ' ते मार કરતો નથી સંરંભ કરતું નથી અને સમારંભ પણ કરતા નથી. અહીં “યાવત્ 'પદથી 'नो व्येजते ' मा पूर्वरित पा8 अ६१ ४२यो छे, रीते 'नो आरंभे वइ, नो सारंभे वट्टइ, नो समारंभे वइ । मास, स२ मने सभा सम ते 94 प्रवृत्त थत नथी. २शत 'आनारंभमाणे' मनाममा प्रवृत्त मेटले मार. सभा मप्रवृत्त, 'असारंभमाणे ' मस२५ ४२ते'असमारंभमाणे' मसभा ४२तो तथा मी भावाय अनुसार 'आरंभे अवट्टमाणे भाममा अवत'भान 'सारंभे अवट्टमाणे' सभा मप्रवृत्त 'समारंभे अवट्टमाणे' भने
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૩