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________________ भगवतीसूत्रे जीवे सया समियं जाव-अंते अंत किरिया न भवई' यावच्च खलु स जीवः सदासमितं यावत्-अन्ते अन्तक्रिया न भवति ? यावत्करणात्-एजते' व्येजते, चलति, स्पन्दते, घट्टते, क्षुभ्यति, उदीरयति, तं तं भावं परिणमति तावच्च खलु तस्य जीवस्य' इति संग्राह्यम् । भगवानाह 'मडितपुत्ता!' इत्यादि । हे मण्डितपुत्र ! 'जावं च णं से जीवे' यावच खलु स जीवः 'सया समियं' सदा नित्यं समितम् रागादियुक्तम् 'जाव परिणमई' यावत् परिणमति-एजनचलन स्पन्दनादि तं तं भावं प्रामोति, यावत्पदेन उपर्युक्तम् एजनादि सर्व त तं भावम् ' इति संग्राह्यम् । 'तावं च णं से जीवे' तावच खलु स उपयुक्त कियावान् जीवः 'आरंभई' आरभते-पृथिव्यादि जीवान् उपद्रवयितुम् चेष्टते सनद्धो भवति, 'ततः 'सारंभई' संरभते तेषां विराधनाय संकल्पं करोति ततः 'समासमझने के लिये मंडितपुत्र प्रभु से पूछते हैं कि-'से केणटेणं एवं बुच्चइ जावं च णं से जीवे सया समियं जाव अंते अंतकिरिया न भवई' हे भदन्त ! जबतक जीव एजनादिक क्रियाएँ करता रहता है और उस२ भावरूप से परिणमता रहता है तबतक उस जीव की अन्त में मुक्ति नहीं होती है ऐसा आप किस कारण से कहते हैं ? तब इसका समाधान करते हुए प्रभु मंडितपुत्रको समझाते हैं-कि हे मंडितपुत्र ! 'जावं च णं से जीवे सया समियं एयइ जाव परिणमइ, तावं च णं से जीवे आरंभह' जबतक वह जीव रागादिक रूप से परिणमता रहता है यावत् उस उस भावरूप से अपने आपको परिणमाता रहता है- तबतक वह जीव आरंभमें पृथिव्यादिक जीवों को उपद्रवित करने के लिये सन्नद्ध हो जाता है बाद में 'सारंभइ' उनकी विराधना करने के लिये संकल्प करता है, बाद में 'समारंभई' नही मे पातवें ॥२ समवान भाटे भडितपुत्र नायना प्रश्न ४३ छ-'सेकेणटेणं एवं वुच्चइ जावं च णं से जीवे सया समियं जाव अंते अंतकिरिया न भवइ ?' હે ભદન્ત ! આપ શા કારણે એવું કહે છે કે જ્યાં સુધી જીવ રાગદેષથી યુક્ત હોય છે, અને ઉપર્યુક્ત પ્રત્યેક ભાવરૂપે પરિણમતે હેય છે, ત્યાં સુધી અન્તકાળે તેને મુકિત મળતી નથી ? उत्तर-'मंडियपुत्ता !' डे मतिपुत्र ! 'जावं च णं से जीवे सया समियं जाव परिणमइ, तावं च णं से जीवे आरंभइ ' ori सुधी ते ७५ हिया યુકત રહે છે (કાવત) અને તે તે ભાવરૂપે પરિણમતો રહે છે, ત્યાં સુધી તે જીવ माम ४२तेडाय छ, 'सारंभई' स२ ते ५ छ, 'समारंभई' समान ४२ते। શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૩
SR No.006317
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages933
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size52 MB
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