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भगवतीसूत्रे विधं विशेषणं वा एजते गच्छति 'चलइ' चलति । स्थानान्तरं गच्छति 'फदई' स्पन्दते ! किश्चित् चलति ! अन्यप्रदेशं गत्वा पुनः स्वस्थानमागच्छतिवा घट्टई' घट्टते ! सर्वदिक्षु संचलति ! पदार्थान्तरं स्पृशतिवा, 'खुब्भइ' क्षुभ्यति ! पृथिवों प्रविशति ? क्षोभयति वा उदीरइ' उदीरयति ! प्राबल्येन प्रेरयति ! चाहिये रागद्वेष सहित कंपित होता रहता है। इसका तात्पर्य यह हैं कि मन, वचन, काय, इन तीन योगों के कम्पन के सम्बन्ध से आत्मप्रदेशों में कम्पन क्रिया होती है-इस कम्पन क्रिया से आत्मामें नवीन कर्मोंका आस्रव होता है। 'वेयई' विविधरूप से अथवा विशेषरूप से कंपन होता है इसका तात्पर्य यहहै कि आत्मा में जब आतध्यान रौद्रध्यान आदिकी प्रबलता रहती है उस समय अशुभादिरूप परिणति की विशेषता से रागादिभावरूप कषायोंकी विशेषरूप से प्रबलता बढ जाती है तब आत्मप्रदेशों में और अधिक सकम्पता आ जाती है इससे आस्रव में भी अधिकता आ जाती है 'चलइ' एक स्थान से दूसरे स्थान में जीव जब गमन करता है तब, 'फंदइ' कुछ चलता है, अर्थात् दूसरी जगह जाकर पुनः जब अपने स्थान पर आता है तब, 'घट्टइ' समस्त दिशाओ में गमनागमन करता है तब, अथवा किसी पदार्थान्तर का स्पर्श करता है तब, 'खुम्भई' क्षोभको प्राप्त होता है, अथवा जमीन के नीचे उतरता है, या किसी अन्य जीवको क्षुभित करता है तब સમજી લેવો. “રાગદ્વેષ સહિત કંપિત થવા” નું તાત્પર્ય નીચે પ્રમાણે છે-મન, વચન અને કાય એ ત્રણ યોગના કંપનના સંબંધથી આત્મપ્રદેશમાં કંપન ક્રિયા થાય છે. मापनहियाथी मात्भामा नवीन ना मात्र प्रवेश) थाय छे. "वेयडे विविध રૂપે અથવા વિશેષરૂપે કંપન થવાનું તાત્પર્ય નીચે પ્રમાણે છે – જ્યારે આત્મામાં આર્તધ્યાન, રૌદ્રધ્યાન આદિની પ્રબળતા રહે છે ત્યારે અશુભદિરૂપ પરિણુતિની વિશેષતાથી રાગાદિ ભાવરૂપ કષાની પ્રબળતા પણ વધી જાય છે. ત્યારે આત્મપ્રદેશોમાં અધિક સકંપતાનો અનુભવ થાય છે. તે કારણે કર્મોને આસવ પણ અધિક अभाशुभ थाय छे. 'चलइ' न्यारे ७१ स्थानथी भी स्थान गमन तो डाय छ, 'फंदड' मी या धन पोतने स्थाने पाछ। २ छ, 'घट्टइ' न्यारे જીવ બધી દિશાઓમાં અવરજવર કરતે હોય છે ત્યારે અથવા કેઈ બીજા પદાર્થને २५ परत जाय छे त्यारे, 'खुब्भई न्यारे ७१ क्षुमित थाय छे त्यारे अथवा सभीनमा नाय तरे छे त्यारे, अथवा अन्य ने सुमित ४२ छे त्यारे, 'उदीरई'
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૩