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________________ प्रमेयचन्द्रिका टी. श.३ उ.२ स. ९ शक्रस्य विचारादिनिरूपणम् ४५१ यान्यं ‘णीसाए' निश्रया आश्रित्य 'उड्ड' ऊर्ध्वम् 'उप्पयइ' उत्पतति, 'जावसोहम्मो कप्पो' यावत् सौधर्मः कल्पः, अर्थात् स चमरः अहंदादित्रयं विहायान्याश्रयेण नैव कथमपि ऊर्ध्व सौधर्मकल्पपर्यन्तम् उत्पतितुमईतीति शक्रस्य मनसि संकल्पः समुत्पन्नः 'तं महादुखं खलु' तत् तस्मात् वज्रप्रक्षेपणद्वारा महादुःखं खलु भवेत् 'तहारूवाणं' तथारूपाणां भूमण्डले विचरताम् 'अरिहंताणं' अर्हताम् 'भगवंताणं' भगवताम् 'अणगाराणं य' अनगाराणाञ्च 'अच्चासायणाए' अत्याशातनया 'त्तिक?' इति कृत्वा मनसि सम्भाव्य 'ओहिं' अवधिम् अवधिज्ञानम् अवधिज्ञानप्रयोगं कुरुते 'पउंजई' प्रयुङ्क्ते ततः 'पउं जित्ता' प्रयुज्य-अवधिज्ञानोपयोगं कृत्वा 'मम' माम् 'ओहिणा' अवधिना वा' अथवा-छद्मस्थ तीर्थकरों के, अथवा-'भावि अप्पणो अणगारे वा' भावितात्मा अनगारों के बिना वह चमर अन्य दसरों की निश्रासे यावत् सौधर्मकल्पतक उध्वमें नहीं उड़ सकता है। यदि उर्व में सौधर्मकल्पतक उड़ सकता है तो इन अहंदादिकों की निश्रा से ही उड़ सकता है ऐसा शक्र के मनमें संकल्प हुआ-'तं महादुक्खं खलु इस कारण मैंने जो चमर के प्रति वज्रका प्रक्षेपण किया है-वह मैने ठीक नहीं किया है-इससे तो उल्टा मुझे ही यह बड़ा दुःख हुआ है क्यों कि इसके प्रक्षेपण द्वारा 'तहाख्वाण' तथारूपधारीभूमण्डलमें विचरण करने वाले 'अरिहंताणं' अरिहन्त भगवन्तों की और 'अणगाराणं' अनगारों की मुझसे 'अचासायणाए' आशातना हुई है ' तिकटु' ऐसी मन में संभावना करके उसने 'ओहिं' अपने अवधिज्ञान का 'पउंजइ' प्रयोग किया 'पउंजित्ता' अवधिज्ञान का उपयोग करके 'मम' मुझे उसने 'ओहिणा' अपने अवधिज्ञान से 'आभोઆશ્રય લીધા વિના ચમરેન્દ્ર સૌધર્મકલ્પ સુધી ઉચે ઉડી શકવાને શકિતમાન નથી” અહત આદિની નિશ્રાથી [આશ્રયથી જ તે સૌધર્મક૯પ સુધી ઉડી શકે છે. આ પ્રકારને વિચાર કેન્દ્રના મનમાં ઉત્પન્ન થયે. 'तं महादुक्खं खलु' त्यारे तेने भनमा पारे : यु. तेने थयु यमरना तर १० वी 'तहारूवाण तथा३पी पारी-भूभमा विय२५५ ४२ना२'अरिहंताणं' मरिहत सावतानी भने 'अणगाराण' माशनी 'अच्चासायणाए। भारा बती शतना । छ. 'त्तिक । मनमा २मा प्रा२नी शयतानी क्यिार रीने 'ओहि पउंजइ' तेथे तेना मधिज्ञानना उपयो। यो पउंजित्ता' भवधिज्ञानन। उपयो। शने तेथे 'मम' भने [मडावी२ प्रभुने] 'ओहिणा आभोएइ' શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૩
SR No.006317
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages933
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size52 MB
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