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________________ ४३८ - - - - - - - - भगवतीसूत्रे यस्मिन क्षणे ध्यातवान् तत्क्षणे एव 'संभग्गमउड विडए' संभग्नमुकुटविटपः संभग्नः त्रुटितः मुकुटविटपः शिरोमौलिमुकुटविस्तारो यस्य सः अधोमुखावलम्बितया त्रुटितमौलिमुकुट इत्यर्थः 'सालंबहत्थाभरणे' सालम्बहस्ताभरणः, आलम्बेन प्रलम्बेन सह वर्तन्ते इति सालम्बानि हस्ताभरणानि करभूषणानि यस्य सः. अधोमुग्वगमनवशात् लम्बायमानहस्ताभरणः संजातः, अतएव 'उड पाए' ऊर्ध्वपादः, ऊर्ध्वमुपरि पादौ यस्य स उर्ध्वपादः ऊर्ध्वचरणः । अतएव 'अहोसिरे' अधः शिराः अधोमुखमस्तकः 'कक्खागयसेयं पिव' कक्षागतस्वेदमिव, देवानां उसी समय-जिस समय ध्यान किया था उसी समय में ही 'संभग्गमउडविडए' उसके माथेका मुकुट टूट गया 'सालंबहत्थाभरणे' नीचे की तरफ मुख करके अपने स्थान पर वहां से आते समय इसके हाथों के आभरण नीचे लटकने लग गये, अर्थात् भय से वह इतना अधिक शरीरमें कृश हो गया, मानो खून सूक गया कि उसके नीचा मुँह करके अपने स्थान पर आते समय हाथों में पहने हुए आभरण नीचे लटक आये, 'उडपाए' उँचेकी ओर उसके दोनों चरण हो गये 'अहोसिरे' और नीचे उसका माथा हो गयां जैसे कोई ओंधामुंह करके किसी वृक्ष आदि की शाखा पर लटके-तो उस समय उसके दोनों पैर ऊंचे रहते हैं शिर नीचे हो जाता है, हाथ भी नीचे हो जाते हैं और शरीर पर पहिरे हुए आभरण नीचेकी ओर लटकने लग जाते हैं। इसी प्रकारसे वह भी जब सौधर्मकल्प से अपने स्थान पर आने के लिये उडा तो उस समय उसकी भी यही हालत हुई । 'काक्खागयसेयं पिव विणिम्मुयमाणे' यद्यपि देवों के 'तहेव' मे क्ष) ' संभग्गमउडविडए' तेना भाथाना भुगट सूटी गयी, 'सालंबहत्थाभरणे' नयनी मातुमे भुम ४शन पाताने स्थाने ती मते તેના હાથનાં આભૂષણે નીચે લટકવા લાગ્યા, એટલે કે ભયથી તેનું લેહી એટલું બધું સૂકાઇ ગયું અને શરીર એવું કૃશ બની ગયું કે હાથમાં परेखi सामूषो। नये टsal वाय. 'उपाए अहोसिरे' भन्ने यस ઊંચે રહી ગયા અને શિર નીચે રહી ગયું. જેવી રીતે કે માણસ કઈ ઝાડની ડાળીએ ઉંધો લટકે તે તેના પગ ઊંચે અને માથું નીચે રહે છે અને તેણે પહેરેલાં આભૂષણે નીચેની બાજુએ લટકવા લાગે છે, એવી રીતે સૌધર્મ ક૯૫થી નીચેની બાજુએ જવાને માટે ઉડતા ચમરના પગ અદ્ધર અને મસ્તક નીચે રહી ગયું અને तेना भाषण नीयनी मासुभे १४ql atयां. 'कक्खागयसेयं पिव विणिम्मुयઆજે જે કે દેવોને વૈક્રિય શરીર હોવાને કારણે પરસેવો વળતો નથી, તે પણ તેની श्री. भगवती सूत्र : 3
SR No.006317
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages933
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size52 MB
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