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प्रमेयचन्द्रिकाटीका श. ३ उ. २.७ चमरेन्द्रस्योत्पातक्रिया निरूपणम् ४२१ भयम् आनीतं यया सा तां भयानिकां 'गंभीरं' गम्भीराम विकीर्णावयवत्वात् 'उत्तासणियं' उत्रासनिकाम् अत्यन्त त्रासजनिकाम् स्मरणेनापि उद्वेगोत्पादिकाम् ' काल रत्तमासरासिसंकासं' कालार्धरात्र - माषराशिसंकाशाम् तत्र काळरात्रि मध्यरात्रिवत् तथा मात्रराशिवच्चात्यन्तकृष्णवर्णां 'जोयणसयसाहस्सीयं' योजनशतसाहस्रिकाम् लक्षयोजनप्रमाणदीर्घाम् ' महाबौदि' महाबोब्दीम् विशालतनुम् 'बिउव्वर' विकुर्वति वैक्रियसमुद्घातेन समुत्पादयति 'विउच्चित्ता' विकुर्वित्वा विकुर्वणया उपर्युक्तवैक्रियाविशालशरीरं निर्माय 'अफ्फोडे ' आस्फोयति करास्फोटं करोति - परस्परहस्तद्वयाघातेन विस्फोटध्वनिमुत्पादयति राल होने के कारण भयोत्पादक था- क्यों कि उसकी आकृति भयजनक थी । ' भासुर' भास्वर दीप्त था 'भयाणीयं' और भय जिससे जीवोंको प्राप्त हों ऐसा था अर्थात् भयानक था 'गंभीर' विकीर्ण अवयवरूप होने से गंभीर था, 'उत्तासणिय' अत्यन्त त्रासजनक था स्मरण करने से भी उससे उद्वेग उत्पन्न होता था - ऐसा था 'कालडरत्तमासरासिसंकासं' कालरात्रि की मध्यरात्रि के समान तथा माघ - उडद - राशि के समान अत्यन्त कृष्णवर्ण वाला था, 'जोयणसयसाहस्सीय ' एकलाख योजन प्रमाणतक वह दीर्घ- लंबा था, ऐसे 'महा बौदि' विशाल शरीर का उसने 'बिउव्वई' वैक्रिय समुदघात द्वारा निर्माण किया । 'विउब्वित्ता' विकुर्वणासे उपर्युक्त विशाल वैक्रियक शरीर का निर्माण करके 'अप्फेोडेइ' उसने परस्पर दोनों हाथों के आघात से विस्फोटरूप ध्वनिको उत्पन्न किया-अर्थात् जिस प्रकार अखाड़े में उतरने पर पहिलवान लोग अपने दोनों हाथों की बांहों को भुजाओंको ठोकते हैं उसी प्रकार से इसने भी अपने दोनों "भासुर" ' ते भास्वर हीप्त हेतु, 'भयाणीय' ते भयान हेतु', 'गंभीरं.' ते विडील अवयवश्य होवाथी गंभीर हेतु, 'उत्तासणीयं ' ते अत्यंत त्रासन्न हेतु - तेने याह ४२वाथी भनभां डर सागे मेवं तु', 'कालड्डू रत्तमासरासिसंकास". તે કાળ રાત્રિની મધ્યરાત્રિના જેવું તથા અડદના ઢગલા જેવું અતિશય શ્યામવર્ણનું હતું. 'जोयणसयसाहस्सीय ' ते मे लाभ योजननी संवाणु तु मेवा 'महाबौदि' विराट शरीर तेथे 'बिउव्वई' वैयि समुद्घात द्वारा निर्माणु यु 'विउच्चिना' मेवा विराट स्व३चनुं निर्माण अरीने 'अप्फोडेइ' तेथे भन्ने हाथ वडे तेनी बन्ने જીજાએ પર થાપટા લગાવી. જેવી રીતે મલલેાકેા કુસ્તી કરતી વખતે તેમના અને હાથ વડે બન્ને ભુજાઓ પર થાપટો લગાવે છે, એવી રીતે તેણે પશુ અને હાથવ3
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શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૩
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