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भगवतीसूत्रे अञ्जलिं कृत्वा, जयेन, विजयेन वर्धापयन्ति एवम् अवादिषुः-एष देवानुप्रियाः ! शक्रो देवेन्द्रो देवराजः, यावत-विहरति ॥ मू० ५॥
टीका-'तेणं कालेणं तेणे समएणं' तस्मिन काले तस्मिन् समये खलु चमरचश्चा 'रायहाणी' राजधानी 'अजिंदा' अनिन्द्रा इन्द्ररहिता 'अपुरोहिआ' अपुरोहिता 'यावि होत्था' चापि अभवत् जाता 'तएणं से' ततः खलु तदनन्तरम् किल स पूर्वोक्तः पूरणो 'वालतवस्सी' बालतपस्वी 'बहुपडिपुण्णइ” बहुप्रतिपूर्णाणि सम्पूर्णानि 'दुवालसवासाई' द्वादशवर्षाणि 'परियागं' पर्यायं दानामा प्रव्रज्यापर्याय पाउणित्ता' पालयित्वा 'मासिआए' मासिक्या एकमासे निष्पद्यमानया 'सलेहणाए' संलेखनया 'अत्ताण' आत्मानं 'जूसेत्ता' जूपित्वा को आपस में मिला करके, अंजलि बनाकर उसे मस्तक पर रखते हुए (जए णं विजएणं वद्धावेंति) उस चमरको जय विजय शब्दोच्चारणपूर्वक पहिले वधाया । पश्चात् उन्होंने उससे (एवं वयासी) ऐसा कहा-(एस णं देवाणुप्पिया! सक्के देविंदे देवराया जाव विहरइ) हे देवानुप्रिय ! यह देवेन्द्र देवराज शक्र है और यावत् निर्भय दिव्य भोगोंको भोगता हुआ आनन्दके साथ अपना समय व्यतीत कर रहा है।
टीकार्थ-तेणं कालेणं तेणे समएणं' उस काल और उस समय में 'चमरचंचारायहाणी' चमरचंचा नामकी राजधानी 'अजिंदा' इन्द्र से रहित थी 'अपुरोहिया यावि होत्था' और पुरोहित से भी रहित थी । 'तएणं' इसके बाद से पूरणे बालतवस्सी' वह पूरण बाल तपस्वी 'वहुपयिपुण्णाई दुवालसवासाई' बहुप्रतिपूर्ण-पूरे२ बारह वर्षे तक 'परियागं' दानामा प्रव्रज्या पर्याय को 'पाउणित्ता' पालन करके मेवी शत भन्न साथ हीन, मसिने भरत: ५२ राभान [जएणं विजएणं वातितमोते यमरेन्द्रने गयनो 48 धाव्या. त्यारा ते सामानि वामे तेने [एवं क्यासी] मा प्रभारी अधु-[एस णं देवाणुप्पिया ! सक्के देविंदे देवराया जाव विहरहाइवानुप्रिय! सेतो हेवेन्द्र देवरा श छ. तमा हिव्य सागाने ભાગવતા આન દથી તેમને સમય વ્યતીત કરી રહ્યા છે,
अर्थ-'तेणं कालेणं तेणं समएणं' ते जे भने त समये 'चमरचंचा रायहाणी' यमस्य या Anान (असुमारानी पानी) 'अणिंदा अपुरोहिया यावि होत्था' चन्द्र भने पुडितथा राहत ती 'तएणं से पूरणे बालतवस्सी' त्या२ माह ते मात५२वी पर 'बहुवडिपुण्णाई दुवालसवासाई' ५२॥ मार वर्ष सुधी 'परियागं' नाम या पर्यायन पाउणित्ता' पासनशन 'मसियाए संलेहणाए'
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૩