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भगवतीसूत्रे योऽयं शब्दः चतुरङ्गलव्यवधानेन भलम्बितभुजः सन् ‘एगपोग्गलनिविट्ठदिट्टी' एकपुद्गलनिविष्टदृष्टिः, एकपुद्गलोपरि स्थापितन्यनः अणिमिसणयणे' अनिमिषनयनः पलकपातरहितेचक्षुः, निनिमेषदृष्टि रितियावत् 'ईसिं पब्भारणएणं' ईषत्पाग्भारनतेन ईषत्-अल्पम् प्राग्भारनतेन-अग्रतो भारावनतेन नम्रीभूतेन 'काएणं- कायेन शरीरेण 'अहापणिहिएहिं' यथाप्रणिहितैः यथाऽवस्थितैः निश्चलैः 'गहि' गात्रैः शरिरावयवैः 'सव्वें दिएहिं' सर्वेन्द्रियैः 'गुत्ते, गुप्तः सन् अहम् ‘एगराइअं' एकरात्रिकीम् एकरात्रिमात्रं 'महापडिम' महापतिमाम् द्वादशकी भिक्षुपतिमाम् 'उपसंपजेत्ता' उपसंपद्य स्वीकृत्य विहरामि तिष्ठामि ।।मू०४॥
मूलम्-तेणं कालेणं, तेणं समएणं, चमरचंचारायहाणी अणिंदा, अपुरोहिआ, यावि होत्था, तएणं से पूरणे बालतवस्सी बहुपडिपुण्णाई दुवालसवासाइं परियागं पाउणित्ता मासिआए संलेहणाए अत्ताणं जसेत्ता सहि भत्ताइं अणसणाए छेदेत्ता कालमासे कालं किच्चा चमरचंचाए रायहाणीए उव'वग्धारियपाणो' यह देशीय शब्द है 'एगपुग्गलनिविद्वदिट्ठी' तथा एक पुद्गल के ऊपर दृष्टि को जमा करके 'अणिमिसणयणे' निनिमेष दृष्टि वाले बने हुए मैंने 'ईसिं पन्भारगएणं कारण' थोड़ा सा आगे की ओर शरीर को झुकाकर 'अहापणिएहिं गएईि' समस्त निश्चल अवयवों से विशिष्ट होकर 'सदिएहि गुत्ते' तथा समस्त इन्द्रियों को उनके व्यापारों से निरोध करके उनसे सुरक्षित होकर 'एगराइयं महापडिमं' एकरात्रि प्रमाणवाली १२वीं भिक्षुप्रतिमा को उवसंपज्जेत्ताणं विहरामि' धारण किया ॥ सू० ४ ॥ पगने मे मladra पासे २राभान (वग्धारियपाणो) भन्ने 14 सतता राभान (एगपुग्गलनिविदिही अणिमिसणयणे) अनिमेष नमरे मे पुनी त२३ निय ष्टि सभीन (ईसिपब्भारगएणं कारण) शरीरने से मना माणु सुतु राभान (अहापणिएहिं गएहि) समस्त अवयवोन निशा राभान (सव्वेदिएहिं गुत्ते) समस्त न्द्रियानी प्रवृत्तियो यमापी धन-गुप्तेन्द्रिय मनान (एगराइयं महापडिम) मे रात्रिनी महिावाणी १२भी भिक्षुप्रतिभानी (उपसंपज्जेत्ताणं विहरामि) આરાધના કરવા માંડી. કે સૂ૦ ૪
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૩