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भगवतीसूत्रे खलु भदन्त ! हे भगवन् ! स खलु 'सक्के देविंदे देवराया' शक्रः देवेन्द्रः, देवराजः 'ईसाणं देविदं देवराय' ईशानं देवेन्द्र देवराजम् ‘सपक्खि ' सपक्षम् चतुर्दिक्षु 'सपडिदिसं' समतिदिशम् ईशानादिचतुःकोणेषु समभिलोइत्तए । समभिलोकयितुम् सम्यग् द्रष्टुं समर्थः ? किम् ? 'जहा पादुब्भवणा' यथा पादुभर्भावना हे गौतम ! यथा शक्रेशानयोः प्रादुर्भावनाविषयिणी उपयुक्तरूपा उक्ति प्रत्युक्तिद्वयी प्रश्नोत्तरात्मिका प्रतिपादिता तहा दोवि' तथा समवलोकनविषये. ऽपि द्वौ 'आलावगा' आलापको 'नेयव्वा' नेतव्यौ विज्ञातव्यौ, शक्रः देवेन्द्रः सुगम है । विना बुलाये भी जो ईशान शक्रके पास जा सकते है उसका कारण यह है कि ईशान उत्तरार्ध लोकाधिपति होने के कारण शक्रकी अपेक्षा श्रेष्ठ माने गये है । 'पभू णं भंते ! सक्के देविंदे देवराया ईसाणं देविंदं देवरायं सपक्खि सपडिदिसिं समभिलोइत्तए' हे भदन्त । देवेन्द्र देवराज शक्र देवेन्द्र देवराज ईशान को अच्छी तरह से देख सकते है क्या? 'सपडिदिसं' का तात्पर्य चारों दिशाओं के चारों कोनों से है और 'सपक्खि' का तात्पर्य चारों दिशाओमें है। ये दोनों क्रिया विशेषण है। इनके रखनेका तात्पर्य केवल इतना ही है कि क्या शक्र ईशानको सब तरफसे-चारों ओरसे अच्छी तरहसे-देख सकते है ? इसका उत्तर देते हुए प्रभु गोतमसे कहते हैं कि-'जहा पाउन्भवणा तहा दो वि आलावगा नेयव्वा' जैसी प्रादुर्भवना प्रकट होने के विषय में प्रश्नोत्तरात्मिक उक्ति प्रयुक्तिरूप बात पहिले कही जा चुकी हैं-उसी प्रकार से इस प्रश्न के उत्तरमें भी वही बात जाननी चाहिये अर्थात् देवेन्द्र शक्र, ईशान देवेन्द्रको आहवान
UR "पभू णं भंते ! सक्के देविंदे देवराया ईसाणं देविदं देवरायं सपक्खि सपडिदिसिं समभिलोइत्तए ?" उ महन्त ! हेवेन्द्र ३१२००८ , हेवेन्द्र १२।०४ शान सारी शतश: छे? "सपडिदिसं" से सारे निशाना थारे पूणेथी, मने "सपक्खि" मेटो यारे हिशा मेथी मा भन्ने हो याविशપણે તરીકે અહીં વપરાયા છે. તે ક્રિયાવિશેષણેને પ્રયોગ કરવાનું તાત્પર્ય એ છે કે "शुं शन्द्र गधी त२५थी-यारे त२५था-शानेन्द्रने सारी रीत छ ?”
उत्तर-"जहा पाउन्भवणा तहा दो वि आलावगा नेयव्या" प्रादुर्भावना (५४८ थवानी या विष सागर में माता (प्रश्नोत्त२३५ सूत्र।) माया छ, એ જ પ્રમાણે આ પ્રશ્નનને ઉત્તર પણ સમજ. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે જે દેવેન્દ્ર
श्री. भगवती सूत्र : 3