SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 229
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श. ३. उ. १ सू० २१ तामलीकृतपादपोपगमनम् २१५ पम् ‘एगते' एकान्तेस्थाने 'एडित्ता' एडयित्वा संस्थाप्य ताम्रलिप्तीनगर्या 'उत्तरपुरस्थिमे' उत्तरपौरस्त्ये 'दिसिभाए' दिग्भागे उत्तरपूर्वदिगन्तराले ईशानकोणे 'णियत्तणियं' निवर्तनिकम् निर्वर्तन क्षेत्रमानविशेषः तत्परिमाणमस्य इति निर्वनिकम् ' मण्डलम् 'आलिहिता' आलिख्य आलेखनमण्डलं विधाय रेखया क्षेत्रं मर्यादीकृत्य 'संलेहणा-जूषणा-जूसिअस्स' संलेखनाजूषणाजूषितस्य संलेखनात्मकतपः क्रियया योजितस्य 'भत्तपाणपडियाइक्विअम्स' भक्तपान प्रत्याख्यातस्य परित्यक्तभक्तपानस्य 'पाओवगयम्स' पादपोपगतस्य पादपोवृक्षः उप शब्दः सादृश्यवाचकः तथाच पादपमुपगच्छति सादृश्येन प्राप्नोति 'एगते' किसी एकान्तस्थान में 'एडिता' छोड दूगा और छोड करके फिर मैं 'तामलित्ती नयरीए उत्तरपुरथिमे दिसिभाए' तामलिप्त नगरी के ईशानकोण में 'णियत्तियं मंडलं आलिहित्ता' क्षेत्रमान विशेष परिमाणवाला मंडल आलिखित करके-अर्थात् रेखा से क्षेत्र की मर्यादा करके 'संलेहणाजूषणासियम्स' काय और कषाय को कृश करनेवाले संलेखनारूप तप से युक्त हो ऊँगा और युक्त होकर के 'भत्तपाणपडियाइक्खियस्स' चारों प्रकार के आहार का प्रत्याख्यान कर दूंगा, इस स्थिति में रहता हुआ मैं 'पाओवगयम्स कालं अणवळखमाणस्स विहरित्तए' पादपोपगमन संथारा धारण करूँगा। पादपोपगमन संथारा धारण करने वाला साधु पतित वृक्षकी तरह, जिस स्थान पर इस संथारा को धारण करता है वहां बिलकुल निश्चेष्ट होकर आत्मध्यान में मग्न रहता है। पादपोपग31 मेन्त स्थाने भूटी ६४२२. त्या२॥ "तामलित्ती नयरीए उत्तरपुरत्थिमे दिसिभाए" तालित ANन शानामा “णियतियं मंडलं आलिहिता" ક્ષેત્રનું પ્રમાણ નકકી કરતી રેખા દેરીને-રેખાની મદદથી ક્ષેત્રની મર્યાદા આલેખીને "संलेहणा ऋषणा जूसियस्स" या मने पायाने पात ४२नारी समन३५ त५२यानुं माराधन ४२Nथ, "भत्तपाण पडियाइक्खियम्स" मा तपस्या ४२भियान हुयारे प्रश्न मारने त्याग ४२री. मने "पाओवगयस्स कालं अणवक्खमाणस्स विहरित्तए" पा६५५रामन था। मा२ ४२रीश. પાદપિગમન એટલે વૃક્ષના જેવું બની જવાની ક્રિયા. જે સંથારામાં, સંથારો કરનાર સાધુ પતિત (પડેલા) વૃક્ષના સમાન નિશ્રેષ્ઠ બનીને આત્મધ્યાનમાં મગ્ન રહે છે, તે સંથારાને પાદપેપગમન સંથારે કહે છે. પાદપ (વૃક્ષ) x ઉપ (સમાન) = પાદપપ. શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૩
SR No.006317
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages933
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size52 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy