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________________ १८२ भगवतीसूत्रे प्रतापशाली 'जाव' यावत्-यावत्पदेन-'वित्थिण्ण विउल-भवण-सयणासणजाण-वाहणाइणो बहुधण-बहुजायख्व-रयए आओगपओग संपउत्ते विच्छ डिय विउल भत्तपाणे बहुदासी-दास गोमहिसगवेलयप्पभूए' इत्यस्य ग्रहणम् , अस्यार्थस्तु उपासकदशाङ्गसूत्रे प्रथमाध्यपने तृतीयमूत्रो आनन्दगाथापति प्रकरणे अगारधर्मसंजीवनी टीकायां विलोकनीयः, तेजस्वी 'बहुजनस्स' बहुभिर्जनैरपि 'अपरिभूएयावि' अपरिभूतश्चापि 'अड्ढे दित्ते, अपरिभूए' एभिस्त्रिभि विशेषणैः मौर्य पुत्र-गाथापतौ प्रदीपदृष्टान्तोऽभिप्रेतस्तथाहि यथा प्रदीपस्तैलवर्तिभ्यां शिखया च सम्पन्नो निर्वाते स्थाने सुरक्षितः प्रकाशमासादयति, एवमयमपि तैल-वर्ति-स्थानीयया आढयताऽपरपर्यायर्द्धया, शिखा-स्थानीयोहो सके ऐसा नहीं था यहां 'यावत्' शब्दसे 'वित्थिण्ण विउल-भवण सयणासण-जाणवाहणाओ बहुजण बहुजायरूव-रयए, आओगपओगसंपउत्ते, विच्छड्डिय-विउलभत्तपाणे, बहुदासीदास गोमहिस गवेलयप्पभूए' इस पाठका संग्रह हुआ है। इन पदोंका अर्थ उपासकदशाङ्गसूत्र में प्रथमाध्ययनमें तृतीयसूत्र में आनन्दगाथापति के प्रकरणमें अगार संजीवनी टीका में लिख दिया गया है-सो वहां से देख लेना चाहिये । 'बहु जणस्स अपरिभूए यावि' इस पाठ द्वारा सूत्रकारने ताम्रलिप्त में तेजस्विता प्रकट की है। इसी लिये अनेकजन मिलकर भी उसका बाल वांका नहीं कर सकते थे । 'अहूढे दित्ते अपरिभूए' इन तीन विशेषणोंसे मौर्यपुत्र गाथापतिमें प्रदीपका दृष्टान्त घटित हुआ है जिस प्रकार दीपक बत्ती और तैल से तथा अपनी शिखा से युक्त होकर सुरक्षित निर्वातस्थानमें रखे जाने पर प्रकाशित होता रहता सूत्रपाठे अडए ४२०थे। छ- " वित्थिण्णविउलभवणसयणासण-जाणवाहणाओ-- बहुजणबहुजायरूव-रयए, आओगपओग संपउत्ते, विच्छड्डिय-विउलभत्तपाणे, बहदासीदासगोमहिसगवेलयप्पभूए " 20 सूत्राने। म पासशसूत्रना પહેલા અધ્યયનના ત્રીજા સૂગમાં આનંદ ગાથાપતિના પ્રકરણમાં અગાઉસંજીવની Ni मापे छ. तो त्यांची वांची सेवा. "बहुजणस्स अपरिभूए याधि" સૂત્રપાઠ દ્વારા તામલીને પ્રભાવ બતાવ્યું છે. અનેક લેકે મળીને પણ તેને વાળ Ri 3री शत नही. "अढे दित्ते अपरिभूए" मात्र विशेष द्वारा તામલિને દીપક સાથે સરખાવી શકાય. જેવી રીતે વાટ, તેલ અને તેથી યુકત દીવાને કે સુરક્ષિત (પવન ન નડે એવાં) સ્થાનમાં રાખ્યું હોય તે તે તેને પ્રકાશ આપ્યા કરે છે, એવી રીતે તેલ અને વાટરૂપી ધનાઢયતાથી, અને ઉદારતા ગંભીરતા શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૩
SR No.006317
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages933
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size52 MB
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