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________________ प्रमेयचन्किाटीका श. ३. उ.१ ईशानेन्द्रस्य देवद्धर्यादिप्राप्तिकारणनिरूपणम् १७३ यावच्च मम मित्र-ज्ञाति-निजक संबंधि-परिजनः आद्रियते, परिजानाति, सत्कारयति, सन्मानयति, कल्याणं मङ्गलं दैवतं चैत्यं विनयेन पर्युपास्ते, तावत् मम श्रेयः कल्यं प्रादुष्प्रभातायां रजन्यां यावत्-ज्वलति, स्वयमेव दारुमयं प्रतिग्रह कृत्वा विपुलम् अशनम्, पानम्, खाद्यम्, स्वायम्, उपस्कार्य, मित्र-ज्ञातिनिजक-सम्बन्धि-परिजनम् आमन्त्र्य, तं मित्र-ज्ञाति-निजकसम्बन्धिपरिजनम् पणेणं वडामि, जाव अईव अईव अभिवड्डामि, जाए च णं मे मित्त नाइ-नियग-संबंधि परियणो आढाइ, परियाणाइ, सकारेइ सम्माणेइ कल्लाणं मंगलं देवयं चेइगं विणएणं पज्जुवासइ) इसलिये जबतक मैं हिरण्य से बढ़ रहा हूं, यावत् मेरे घर पर जबतक सांसारिक वैभव विलासका हरतरह से खूब२ अभ्युदय हो रहा है तथा जबतक मेरे मित्र, ज्ञातिजन, मेरे निज परिवार के व्यक्ति परिजन, आदि मेरा आदर करते हैं, मुझे स्वामी के रूप में मानते है, मेरा सत्कार करते है, सन्मान करते है और मुझे कल्याणरूप मंगलरूप एवं देवरूप मानकर और ज्ञानवान् मानकर विनयपूर्वक मेरी सेवा करते है, (तावता मे सेयं कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव जलंते) तबतक मेरी भलाई इसी में है कि मैं अपना आत्मकल्याण करलू इसलिये मै कल के दिन जब रात्री प्रभातप्रायः हो जायगी यावत् सूर्यका प्रकाश तपने लगेगा अर्थात् सूर्य का उदय हो जावेगा तब मै (सयमेव दारुमयं पडिग्गहं करेत्ता, असणं पाणं, खाइमं साइमं हिरण्णेणं बड्डापि, जाव अईच अईव अभिवढामि, जाव च णं मे मित्त-नाइनियग-संबंधि-परियणो आढाइ, परियाणाइ, सक्कारेइ, सम्माणेइ, कल्लाणं मंगलं देवयं चेश्यं विणएणं पज्जुवासइ) तथा न्यi सुधी भारे त्या डि२९य, સુવર્ણ, ધન, ધાન્ય આદિની વૃદ્ધિ થઈ રહી છે, જ્યાં સુધી મારે ત્યાં સાંસારિક વૈભવની વૃદ્ધિ થઈ રહી છે, જ્યાં સુધી મારા મિત્ર, જ્ઞાતિજને, કુટુંબીઓ અને પરિજન (આશ્રિતો) મારો આદર સત્કાર કરે છે, અને સ્વામીના રૂપે સ્વીકારીને મને સત્કારે છે અને મારું સન્માન કરે છે, અને મને કલ્યાણરૂપ, મંગળરૂપ, દેવરૂપ અને शानागार मानीव विनयपूर्व भारी सेवा ४२ छ, (तावता मे सेयं कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव जलंते) त्या सुधीमा ने भा२। साभानु ४८या ४॥ तij सारु! तथा मा रात्री पूरी यता ४ - ४ो सूहिय थdi o४ (सयमेव दारुमयं पडिग्गरं करेत्ता, विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेत्ता શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૩
SR No.006317
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages933
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size52 MB
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