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________________ भगवतिसूत्रे प्रकृतिप्रतनुक्रोध-मान-माया— लोभः प्रकृत्यैव प्रतनवः दुर्बळाः क्रोधमान मायालोमाः यस्य स मृदुमादेवसम्पन्नः मृदुच मार्दवञ्च मृदुमार्दवं तेन सम्पन्नः अत्यन्तमार्दवयुक्तः, आलीनभद्रकः, आलीने आश्रिते भद्रकः आश्रितोवा नुशासनेऽपि सुभद्रक एव नत्वभद्रकः इति 'अष्टमं अष्ठमेन' अष्टमम् अमेन नामक तपसा 'अणिक्खित्तेणं' अनिक्षिप्तेन निरन्तरेण 'पारणए' पारणके क्रियमाणे 'आयंबिल परिग्गहिरणं' आचाम्लपरिगृहीतेन 'तवोकम्मेणं' तपः कर्मणा 'उ' ऊर्ध्वम् 'बाहाओ, बाहुभुजौ 'पगिज्झिय परिज्झिय' प्रगृह्य मगृह्य समुत्थाप्य 'मुराभिमुहे' प्रतिदिन सूर्याभिमुखः सूर्यसंमुखः ' आयावणभूमिए ' आतापनभूमौ ' आयावेमाणे' आतापयन् आतापनां कुर्वन् 'बहुपडिपुणे' बहुप्रतिपूर्णान् संपूर्णान् 'छम्मासे' षण्मासान् षण्मासावधिं यावत् 'साम देणसंपन्ने आलीणभद्दए' इस पाठका संग्रह किया गया है । इसका भाव यह है कि वे स्वभावतः उपशान्त परिणामवाले थे, स्वभावतः ही उनमें क्रोध, मान, माया और लोभ ये चारों कषाये पतली थीं । उनकी अन्तःकरण वृत्ति अत्यन्त मृदुता गुणसे युक्त थी । वे अपने आश्रित में अथवा गुरु के आज्ञामें सदा भद्रवृत्ति संपन्न थे अभद्रवृत्ति संपन्न नहीं थे । 'अट्ठमं अट्ठमेणं अणिक्खित्तणं' वे निरन्तर अट्ठम अट्टमकी तपस्या करते थे 'पारणए आयंबिल परिग्गहिएणं तवोकम्मे णं' जिस दिन वे पारणा करते थे उस दिन वे आयंबिलकी तपस्याके साथ पारणा करते थे । 'उड्ढ बाहाओ पगिज्झिय सूराभिमुहे आयावणभूमिए आयावेमाणे' आतापनभूमिमें आतापना करते समय सूर्य के सामने खडे रहते और अपने दोनों हाथ ऊंचे किये रहते थे । इस प्रकार से उन्होंने इस तपःकर्मकी आराधना 'बहुपडिपुणे छम्मासे' ठीक ६ छहमास तक की छह मास में एक दिन भी इस કષાયે તેમનામાં ક્ષીણ થયેલા હતા. તેમનું અંતઃકરણ અતિશય માવથી (મૃદુતા) ચુત હતુ. તેઓ તેમના ગુરુજનેાની આજ્ઞાને અનુસરનારુ અને ભદ્રવૃત્તિવાળા હતા. "अमं अमेणं अणिक्खत्तेणं" तेथे निरंतर अभने पारो मट्टभ उरता हुता. "पारणए आयंबिल परिगहिएणं तवोकम्मेणं" तेम्मा चारणाने हिवसे आयमिलनी तयस्या ४२ता हुता. “उड बाहाओ पगिज्झिय सूराभिमु आयावणभूमिए आयावेमाणे " तेरमो तरअवाजी भय्यामां सूर्यनी सामे ला रहीने, जन्ने हाथ अया शमीने आतापना होता हता. " बहुपडि पुणे छम्मा से" तेभये जरामर छ भास सुधी ते तपनी सतत आराधना एरी. "सामण्णपरियागं पाउणित्ता" १२८ શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૩
SR No.006317
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages933
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size52 MB
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