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________________ पमेयचन्द्रिका टीका श ३. उ. १ तिष्यकान्यसामानिकदेवऋद्धिवर्णनम् १०९ हे भदन्त ! यदि खलु यदा हि तिष्यकनामा शक्रसामानिकदेवः, ‘एवं महिहूढीए' पूर्ववर्णितातिशयसमृद्धिमहाधुतिबलख्यातिसौख्यशाली वर्तते 'जावएवइयं च णं पभू विकुचित्तए' यावत्-एतावच खलु प्रभुर्विकुर्वितुम्-यथोक्तरीत्या विकुर्वणद्वारा वैक्रियसमुद्धातेन वारद्वयं समवहत्य निष्पादितनिजात्म विविधरूपान्तरैः जम्बूद्वीपादिकं पूरयितुं समर्थः, विमान-सामानिकदेवाग्रमहिषीपर्षदनीकानीकाधिपति निजात्मरक्षकदेव-वैमानिकसुगापरि स्वाधिपत्यादिकरणपूर्वक दिव्यभोगान् भुञ्जानो विहरति इति यावत्पदेन गम्यते, तदा "सकम्स णं भंते ! देविंदस्स देवरण्णो' हे भदन्त ! शक्रस्य खलु देवेन्द्रस्य देवराजस्य 'अवसेसा' अवशिष्टाः 'सामाणियादेवा' सामानिका देवाः 'के महितिष्यक नामक सामानिक देवसे भिन्न और सामानिक देव है उनकी समृद्धयादिक के विषयमें भगवानसे पूछ रहे है कि- 'जइ णं भंते !' हे भदन्त ! यदि 'तीसए देवे महिडूढीए' तिष्यक नामका जो यह शन्द्रका सामानिक देव हैं वह पूर्ववर्णित प्रकारके अनुसार इतनी बड़ी समृद्धिवाला, महाद्युतिवाला, बलवाला, ख्यातिवाला, सौख्यवाला है तथा 'एवड्यं च णं पभू विकुवित्तए' यथोक्तरीतिके अनुमार वह विकुर्वणाद्वारा सम्पादित वैक्रिय समुद्धातसे दोबार समवहत हो कर निष्पन्न हुए निज विविधरूपोंसे जंबूद्वीपादिकांको भर सकने के लिये समर्थ हैं- अर्थात तिष्यक देव विमान, सामानिक देव, अग्रमहिषी, परिषदा, सैन्य, सेनापति, आत्मरक्षकदेव तथा अन्य और भी वैमानिक देव आदिके ऊपर अधिपतित्व करता हुआ दिव्य भोगोंको भोगता रहता है यह बात वहां यावत्पदसे जानी जाती है, तो 'सक्कस्स णं भंते! देविंदस्स देवरणो' देवेन्द्र देवराज शक्रके जो और 'अवसेसा तिष्य सिवायना सामानि देवानी समृद्धि विष प्रश्न पूछे छ ?-"जहणं भंते ! तीसए देवे महिडीए" र महन्त ! २ शन्द्रनो सामानि व तिष्य પૂર્વોક્ત પ્રકારની ઘણું ભારે સમૃદ્ધિ, ઘણી ભારે કાન્તિ, મહાબળ, મહાયશ, મહાસુખ भने भाप्रमाथी युत छ, तथा "एवइयं च णं पभू विकुवित्तए" वैठिय સમુદ્યાત દ્વારા નિર્મિત અનેક દેવ-દેવિયેનાં રૂપથી બે જંબુદ્વીપને ભરી દેવાને સમર્થ છે. તથા તે તિષ્યક દેવ પિતાના વિમાન, સામાનિક દેવ, પટ્ટરાણી, પરિષદ, સૈન્ય, સેનાપતિ, આત્મરક્ષક દેવે, તથા બીજા વૈજ્ઞાનિક દેવ દેવિ પર આધિપત્ય ભેગવે છે, तो “ सक्कस्स णं भंते देविंदस्स देवरणो" हे१२०४, हेवेन्द्र शना “अवसेसा શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૩
SR No.006317
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages933
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size52 MB
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