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प्रमेयचन्द्रिका टीका श. ३ उ. १ तिष्यकाणगारविषये गौतमस्य प्रश्नः
संग्रहीत 'दसनहं' दशनखम् 'सिरसावत्तं ' शिरसाऽऽवर्तम् शिरसि प्रदक्षिणपरिभ्रमणं यस्य तम् 'मत्थए' मस्तके शिरसि 'अज्जलि' करसम्पुटं 'क' कृत्वा 'जएणं' जयेन जयशब्दोच्चारणेन 'विजएणं' विजयशब्दोच्चारणेन- 'वद्धाविति' परिगहियं' दोनों हाथों को इस प्रकार से जोड़कर आते हैं कि जिससे उनके 'दसनहं' दशों नख आपस में संमिलित हो जाते हैं । इस प्रकार वे दोनों हाथोंको 'अंजलिं कट्टु' अंजलि रूप में बनाकर और उसे 'सिरसावत्तं' मस्तक के उपर घुमाकर उसके पास में आये। वहां आकर उन्होने उसे 'जएणं विजएणं' आपकी जय हो आपकी विजय हो 'बद्धाविति' इस प्रकार वधाई दी। शंका- सिद्धांत में पर्याप्ति ६ छह प्रकार की कही गई हैं पर यहां ५ पांच प्रकार की कही गई हैं सो क्या कारण हैं ? उत्तर- ठीक है पर्याप्ति तो ६ छह ही होती है पर भाषा और मनपर्याप्ति इन दो पर्याप्तियों का देवों में बंध होता है इसलिये वहां ये इस अपेक्षा ५ पांच ही कही गई है । जीव जिस शक्ति के द्वारा आहार के पुलों को ग्रहण करके उन्हे खल भागरूप से और रस भागरूप से जो परिणमाता है-उस शक्तिका नाम आहार पर्याप्ति है । जिस शक्तिरूप पर्याप्ति के द्वारा रसरूप से परिणत हुए आहार पुगलों को जीव अपने शरीररूप में परिणमाता है उस प्रर्याप्तिका नाम आहारपर्याप्ति है । तथा खल पहना देवे। “ करयलपरिग्गहियं " तेभना भन्ने हाथने लेडीने " दसनहं ११- तेमना भन्ने हाथना दृशे नम थे! जीलने भजी लय मेवी रीते अंजलिं कट्टु " संभविश्य मनावीने अने तेनुं " सिरसावत्तं " शिर पर आवर्तन उरीने तेमनी पासे याव्या त्यां भावाने " जएणं विजएणं " आपनो भय हो, आपनो विन्य हो, मेवा नाह साथै " वद्धाविंति " तेभो तेने अभिनंन मध्यां શંકા-સિદ્ધાંતમાં તે છ પ્રકારની પર્યાસિયો કહી છે. તા અહીં શા માટે પાંચ પ્રકારની પર્યાપ્તિયો કહી છે ? ઉત્તર-પર્યાપ્તિયો છ હાય છે, તે વાત સાચી છે પણ દેવામાં મનપર્યાપ્તિ અને ભાષાપર્યાપ્તના એક જ ખંધ હોય છે, આ દૃષ્ટિએ તેના છે ને ખઠ્ઠલે પાંચ પ્રકાર કહ્યા છે.
જે શક્તિ વડે જીવ આહારના પુગ્ધાને ગ્રહણ કરીને તેમને ખલભાગ રૂપે તથા રસભાગ રૂપે પરણુમાવે છે, તે શકિતને આહાર પર્યાપ્તિ કહે છે. જે શક્તિરૂપ પર્યાપ્તિ દ્વારા રસરૂપે પરિણમેલાં આહાર રૂપ પુઞ્લાને જીવ પેાતાના શરીર રૂપે પરિણમાવે
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શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૩