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________________ प्रमेयवन्द्रिकाटीका श०१उ०६ सू०६ जीवपुद्गलबन्धनिरूपणम् ८१ अत एव 'अन्नमनघडताए चिट्ठति' अन्योन्यघटतया तिष्ठन्ति । अन्योन्यं परस्परं घटः समुदायो येषां ते अन्योन्यघटस्तस्य भावोऽन्योन्यघटता, तया अन्योन्यघटतया तिष्ठन्ति किमिति प्रश्नः। भगवानाह-'हते'-त्यादि । 'हंता अत्थि' हन्त अस्ति, हे गौतम! यथा त्वया प्रोक्तं तत्तथैवास्तीत्युत्तरम् । गौतमः प्राह'से केणटेणं भंते जाव चिटुंति' तत्केनार्थेन भदन्त ! यावत् तिष्ठन्ति, यावच्छब्देन-' अन्नमन्नवद्धाः' इत्यारभ्य ' अन्नमनघडताए' इत्यन्तः पदसंदर्भः संग्रायः। भगवानाह--'गोयमे '-त्यादि ' गोयमा' हे गौतम ! 'से जहा णामए हरदे सिया' तद् यथा नामको ह्रदः स्यात् 'पुण्णे पुण्णप्पमाणे वोलट्टमाणे बोसट्टमाणे समभरघडत्ताए चिट्टइ' पूर्णः पूर्णप्रमाणो व्यपलोटयन् विकसन् समभरघटतया तिष्ठति, यथा हुदो जलेन पूर्णः स्यात् किश्चिन्यूनत्वेपि व्यवहारतः पूर्णतया व्यवह्रियेत तत्राह-' पुणप्पमाणे' पूर्णप्रमाणः पूर्ण जलेन स्वकीय मानं यस्य स चिपक जाते हैं। “अन्नमनघडताए" का तात्पर्य है आपस में एक समुदायरूप में होकर रहना । प्रश्न कर्ताका यहां ऐसा अभिप्राय है कि कर्मपुद्गल और जीव जब आपस में बंधदशा को प्राप्त हो जाते हैं तब क्या ये दोनों एक समुदायरूप में आजाते हैं ? इस प्रकार ये प्रश्न हैं। इन सब का उत्तर देते हुए भगवान् कहते हैं कि (हंता अत्थि) है। गौतम ! हां ऐसा ही है। (से केणटेणं भंते ! जाव चिटुंति ?) हे भदन्त! आप ऐसा किस कारण से कहते हैं कि यावत् वे इस प्रकार से रहते हैं ? (गोयमा ! से जहा नामए हरदे सिया पुण्णे पुण्णप्पमाणे वोलड्रमाणे वोसट्टमाणे समभरघडताए चिट्ठइ) हे गौतम ! जैसे कोई एक ह्रद हो और वह पानी से पूरा भरा हो। पूरा नहीं भरा होने पर भी अर्थात् योटर लय छ, “ अन्नमन्नघडत्ताए” सेट " ५२२५२ मे समुदाय ३ २." પ્રશ્ન કર્તાને આશય એવો છે કે જ્યારે કર્મપુલો અને જીવન પ્રદેશ પરસ્પર બંધાય છે. ત્યારે શું તેઓ બને એક સમુદાય રૂપે બની જાય છે ? આ જાતના ગૌતમસ્વામીના પ્રશ્નોના ઉત્તર મહાવીર પ્રભુ આ પ્રમાણે આપે છે. -( हंता अस्थि ) 3 गौतम! यु २४ मने छ. प्रश्न--( से केण ण भंते ! जाव चिट्ठति ? लगवन् ! ॥ ॥ आरो એવું કહે છે કે “તેઓ આ રીતે રહે છે? ત્યાં સુધી સૂત્રપાઠ ગ્રહણ ४२व. उत्त२-( गोयमा ! से जहा नामए हरए सिया पुण्णे पुण्णप्पमाणे वोलट्रमाणे वोसहमाणे समभरघडत्ताए चिदुइ) गौतम ! वीरीत असे सरोवर હોય અને તે પાણીથી પૂરેપૂરું ભરેલું હોય (પૂરેપૂરું ન ભરેલું હોવા છતાં પણ भ० ११ શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨
SR No.006316
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1114
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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