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________________ ८९२ भगवतीसूत्रे हृद्यवधार्य हट्टतुट्ठ जाव हियया' हृष्टतृष्ट यावद् हृदयाः इह यावत्पदेन चित्तानंदिताः प्रीतिमनसः परमसौमनस्थिताः हर्षवशविसर्पद् हृदया इति ग्राह्यम् ‘तिक्खुत्तोआयाहिणं पयाहीणं करेंति' त्रिकृत्व आदक्षिणप्रदक्षिणं-कुर्वन्ति. 'जाव तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासंति' यावत्-त्रिविधया पर्युपासनया पर्युपासते. कायिकवाचिकमानसभेदेन पर्युपासनायास्त्रैविध्यं भवति । यावत्पदेन वन्दन नमस्कारादीनां ग्रहणं भवतीति । “पज्जुवासित्ता एवं वयासी" पर्युपास्य एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादिषुः अडथयन-पृष्टवन्त इत्यर्थः 'संजमेणं भंते ! किं फले' संयमः खलु भदन्त ! कि फलः संयमस्य सर्वविरतिलक्षणस्य किं फलमित्यर्थः 'तवेणं भंते ! किं फले' तपः खलु भदन्त ! किं फलम् संयमतपसोः किं फल | मिति श्रमणोपासकानां प्रश्नः । 'तए णं ते थेरा भगवंतो ते समणोवासए एवं (हहतुट्ठ जाव हियया ) हर्ष और संतोष से युक्त और हर्षवश से प्रफुल्लित हृदय होते हुए (तिक्खुत्तो ) तीनवार ( आयाहिणं पयाहिणं करेंति ) उनका आदक्षिण प्रदक्षिण किया। (जावतिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासंति ) यावत् उन्होंने उन स्थविर भगवन्तों की विविध पर्युपासना की। मानसिक वाचनिक और कायिक के भेद से उपासना तीन प्रकार की होती है। यहां जो यावत् पद प्रयुक्त हुआ है उससे चन्दन नमस्कार आदि का ग्रहण किया गया है । ( पज्जुवासित्ता ) पर्युपासना करके ( एव वयासी) फिर उन श्रमणोपासको ने उन स्थविर भगवतों से इस प्रकार कहा, अर्थात्- उन्हों ने उनसे इस प्रकार से पूछा(संजमेणं भंते किं फले ) हे भदंत ! सर्व विरतिरूप जो संयम है उसका क्या फल होता है ? ( तवेणं भंते किंफले) इसी तरह हे भदन्त ! तपका क्या फल होता है ? इस तरह संयम और तप के विषय में उन श्रमणो "निसम्म" तेने पोताना यमा धा२९ ४२ (हट्ट तुट्ट जाव हियया) तमनायमा અતિશય હર્ષ અને સંતોષ થયે. હર્ષને કારણે તેમનાં હૃદય પ્રફુલ્લિત થયાં (तिक्खुत्ता) १ वा२ (आयाहिण पयाहिण करेंति ) तेमणे त्रशुवार माक्षिण ५ तेभने ४ नमः४१२ ४ा. (जाव तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासंति) અને તેમણે તે સ્થવિર ભગવતેની ત્રણ પ્રકારે–મન, વચન અને કાયનાં વેગથી પર્યું પાસના કરી. અહીં જે ‘યાવત્' પદ આવ્યું છે. તેના દ્વારા વંદન, नमः॥२ मा ७ ४२शयां छ. (पज्जुवासित्ता एवं वयासी) युपासना (सेवा) परीने तमधे ते स्थविर भगवान मामा प्रश्न पूछयो. (संजमेण भंते किं फले) हे महन्त ! सर्व विति३५ सयमनु शु डाय छ? (तवेण भंते ! कि फले!) सन्त! तपशु डाय छ। रीते શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨
SR No.006316
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1114
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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