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________________ ૨૦૧ भगवती सूत्रे मनस एकत्वीकरणेन - एकत्र स्थापनेन अनेकविषयकं मनः स्थितविचारं परित्यज्य दर्शनमात्रविषयक विचारवता मनसेत्यर्थः । " जेणेव थेरा भगवंतो तेणेवउवागच्छन्ति " यत्रैव स्थविरा भगवन्तः तत्रैवोपागच्छन्ति । उवागच्छित्ता " उपागत्य " तिवखुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेति " त्रिकृत्वः = त्रिवारम् आदक्षिणप्रदक्षिणं बद्धाञ्जलिपुटं दक्षिणकर्णमूलत आरभ्य ललाटप्रदेशेन वामकर्णा न्तिकेन चक्राकारं वारत्रयं परिभ्राम्य ललाटदेशे स्थापनरूपं कुर्वन्ति । "करिता " कृत्वा जाव" यावत् - वंदइ नमसइ " वन्दते नमस्यति " वंदित्ता नमसित्ता वन्दित्वा नमस्थित्वा " तिविहाए पज्जुवासणयाए " त्रिविधया मनोवाक्कायरूपया पर्युपासनया पर्युपासते सेवन्ते ॥ सू० १० ॥ "" 95 में मन को एकाग्र करना अर्थात्- अनेक विषयोंके विचार करने में लवलीन हुए मन को उस समय उन विचारों से हटाकर उसे केवल दर्शन आदि में स्थिर रखना ५ । इस प्रकार के इन पांच अभिगमों से युक्त हो कर वे श्रमणोपासक (जेणेव थेरा भगवतो तेणेव उवागच्छंति) जहां स्थविर भगवंत विराजमान थे वहां परआये (उवागच्छिता) वहां आकर उन्होंने (तिक्खुतो) तीन बार (आयाहिणपयाहिणं करेंति) आदक्षिण प्रदक्षिण किया " द्धांजलि पुट को दक्षिण कर्ण मूल से लेकर चक्राकाररूप में ललाट के ऊपर से घुमाते हुए वामकर्णान्ततक ले जाना - इस प्रकार तीन बार करना और अंत में उसे मस्तक पर स्थापित करना इसका नाम आदक्षिणप्रदक्षिण है । 'करिता ' आदक्षिण प्रदक्षिण कर के 'जाव यावत् शब्द से ( बंदइ नमसइ वंदित्ता नमसित्ता ) फिर उन्होंने उनका वन्दना की, नमस्कार किया, वन्दना नमस्कार करके ' तिविहाए पज्जुवासण्याए ' त्रिविध मनोवाक्कायरूप पर्युपासना से उनकी ( पज्जुवासंति) सेवा करने लगे ॥ सू०१० ॥ વિચાર કરવામાંથી મનને વાળી લઇ તેને દન આદિમાં સ્થિર કરવું. આ પ્રમાણે यांचे अलिगभेो पूर्व ते श्राव। (जेणेव थेरे भगवतो तेणेव उवागच्छत्ति) न्यां स्थविर लगवतो विरान्ता ता त्यां याव्या. 'उवागच्छित्ता' त्यां यावीने तेभो तिक्खुत्तो" युवार " आयाहिणपयाहिण करेंति " यादृक्षिण प्रदक्षिण કર્યાં.( હાથ જોડીને જમણા કાનથી શરૂ કરીને ચક્રાકારે લલાટની ઉપર થઇને ડાબા કાન સુધી લઇ જવે. આ પ્રમાણે ત્રણ વાર કરવું અને પછી તેને માથા पर गोठवा तेनुं नाम दक्षिण प्रदक्षिण छे ) " करिता " माहक्षिण अहक्षिण रीने ( जाव ) अहीं ( यावत् ) पहथी " वंदइ नमसइ वंदित्ता नमसित्ता" तेभो तेभने वा उरी, नमस्र अर्था. वहा नमस्सार उरीने " तिविहाए भन, पज्जुवा सणयाए વચન અને કાયરૂપ ત્રિવિધ પ્રકારે पज्जुवासंति तेभनी सेवा वा साभ्या ॥ सू. १० ॥ 66 ܕܕ શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨ "9
SR No.006316
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1114
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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