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प्रमेयचन्द्रिकाटीका श० १ उ० ६ सू० ५ लोकस्थितिप्रकरणम् ७५ निष्कासयतीत्यर्थः, 'उपरिल्लं देसं वामेत्ता' उपरितनं देशं वमयित्वा, ऊर्ध्वदेशाद्वायुमपसार्य, 'उपरिल्लं देसं आउकायस्स पूरेइ' उपरितनं देशमप्कायेन पूरयति, ऊर्ध्वं देशं जलेन प्रपूरयतीत्यर्थः, 'पूरित्ता' पूरयित्वा 'उप्पि सितं बंधइ' उपरि सितंबन्धनं बध्नाति, 'बंधित्ता' बद्ध्वा 'मज्झिल्लं गंठिं मुयइ' मध्यमा प्रन्थि मुञ्चति, 'से णूणं गोयमा' तन्नूनं हे गौतम ! ' से आउकाए वाउकायस्स उर्णि उपरिमतले चिट्ठइ' स अकायो वायुकायस्योपरि उपरिमतले तिष्ठति किम् ? अप्कायो जलम् वायुकायस्य वायोरुपरि यद्यप्युपरि व्यवहारतोपि संभवेत्तथापि सर्वोपरित्वबोधनायाह ' उवरिमतले' उपरिमतले सर्वोपरीत्यर्थः किं विष्ठतीति दे। इस तरह उस मसक में आधे भागमें तो वायु भरी रहती है और आधाभाग वायु से रहित होकर खाली हो जाता। (उवरिल्लं देसं वामेत्ता) इस प्रकार उर्ध्वदेश से वायु को हटाकर ( उवरिल्लं देसं आउकायस्स पूरेइ) वह उस उर्ध्वदेश को जलसे भर दे । (पूरित्ता उप्पि सितं बंधा ) भर कर फिर वह उसे बांध दे । (बंधित्ता) बांधकर ( मझिल्लं गठिं मुयइ) पहिले लगाई हुई बीच की गांठ को फिर वह खोल दे। ( से नूणं गोयमा ! से आउकाए वायुकायस्स उप्पिं उवरिमतले चिट्ठइ) तो हे गौतम! वह भरा हुआ पानी उस पवन के ऊपर के भाग में रहता है क्या? ऐसा भगवान् ने गौतम से पूछा । तब गौतम ने कहा (हंता चिट्ठइ ) हां भदन्त ! रहता है। यहां ( उवरिमतले) ऐसा जो कहा गया है उसका कारण यह है कि जल वायु के ऊपर रहता है यह पात व्यवहार से भी लोक में मानी जाती है तो भी वह जल सर्वोपरि મશકની ઉપરના ભાગમાંથી વાયુને બહાર કાઢી નાખે આ પ્રમાણે કરવાથી મશકના અર્ધા ભાગમાં તે વાયુ ભરેલું રહેશે અને અર્ધો ભાગ વાયુરહિત मासी 25 . ( उवरिल्लं देसं वामेत्ता) पछी भशन 6५२न भागमाथी पायुने पढी नाभीने ( उवरिल्ल देसं आउकायस्स पूरेइ) ते 6५२॥ भागने पाणीथी मारी है. (पूरित्ता उप्पिं सितं बंधइ) पछी ५ लारीने शथी तेर्नु पर्नु भुषांधी है (बंधित्ता) भुभने मांधी ने ( मज्झिल्ल गंठि मुयइ) पडसा धेिसी वयसा मागनी ने पछी पोटी नाणे. ( से णूणं गोयमा ! से आउकाए वाउकायस्स उप्पिं उवरिमतले चिदुइ ? ) तो गौतम ! ते लरेनु पाणी वायुना ५२न मागमा २७ छ ५३ ? गौतमे वाम माय(हंता चिइ) लगवन् ! २९ छ. २मही ( उवरिमतले) मे रे युं छे तेनु કારણ એ છે કે પાણી વાયુની ઉપર રહે છે તે વાત વ્યવહારથી પણ લોકમાં માનવામાં આવે છે. તે પણ પાણી સર્વોપરી છે એ વાતને બતાવવાને માટે
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨