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प्रमेयचन्द्रिका टीका श० २ उ०५ सू० १० पार्थापत्यीयस्थविरवर्णनम् ८७१ व्यक्तवर्णात्मको नादः 'जणुम्मि'जनोमिः जनसंबाधः तरङ्गबज्जनानामुपर्युपरि समाग मनम् , “ जणुक्कलिया " जनोत्कालिका-जनानां लघुतर समुदायः । " जण सण्णिवाएइवा" जनसनिपातः जनानां संघर्षरूपेण संमिलनं भवति. तत्र " बहुजणो " बहुजनः “अण्णमण्णस्स " अन्योन्यम् “ एवमाइक्रवइ " एव माख्यातिएकोऽपरं-सामान्यरूपेण वदति, “ एवं भासइ" एवं भाषते-विशेषतो वदति, एवं पण्णवेइ" एवं प्रज्ञापयति-अपृष्टः सन् कथयति, “ एवं परूवेइ" एवं प्ररूपयति कश्चित् पृष्टः सन् कथयति । किंकथयति ! इत्याह-" एवं खलु " इत्यादि। " एवं खलु देवाणुप्पिया" एवं खलु देवानुप्रियाः, " पासावचिज्जा थेरा भगवंतो" पापित्यीयाः स्थविरा भगवन्तः " पुवाणु पुछि चरमाणा" एक दूसरे से पूछते थे (जणयोलेइवा) कहींपर मनुष्यों की अव्यक्तध्वनि होती थी, कहीं पर (जणकलकलेइवा) मनुष्यों का व्यक्त नाद होता था, कहीं पर (जणुम्मी) तरङ्गों की तरह ऊपर के ऊपर मनुष्य आते थे, (जणुक्कलिया) कहीं पर मनुष्यों का छोटा सा समूह दिखाई पड़ना था ( जणसण्णिवाए ) कहीं पर मनुष्यों का संघर्षरूप से सम्मेलन होता था, उसमें (बहुजणो) अनेक मनुष्यों (अण्णमण्णस्स) एक दूसरे से (एवमाइक्खइ ) इस प्रकार सामान्यरूप से कहते थे ( एवं भासइ) कोई कोई विशेषरूप से आपस में एक दूसरे से कहते थे ( एवं पण्णवेइ) कोई कोई आपस में एक दूसरे से विना पूछे ही कहते थे । एवं परवेइ) कोई कोई पूछने पर कहते थे ? सो सूत्रकार स्पष्ट करते हैं (एवं खलु देवाणुप्पिया पासावञ्चिज्जा थेरा भगवन्ता ) हे देवानुप्रियो ! पार्श्वनाथ ! भगवान के प्रशिष्य स्थविर भगवन्त ( पुव्वाणुपुचि चरहता (जणवोलेइवा) its स्थणे सोनी भव्यत पनि भावतो तो. आई श्यले ( जणकलकलेइवा) भनुष्याना व्यत ना समजातो ते! ( जणुम्मी) या पाणीनां मानसानी म भनुष्यनो समूड भारत इता, ( जणुक्कलिया) आ
यामे माणुसोना नानी समूड नगरे ५। डतो,
यामे (जण सण्णिवाए ) मनुष्यानो मे मोटी समूह ચાલતું હતું કે તેમને એક બીજા સાથે ઘસાઈને ચાલવું પડતું હતું. તેમાંના ( बहुगणो) मने मनुष्य। ( अण्णमण्णस्स) मे मीलने (एवमाइक्खइ) सामान्य रीत २प्रमाणे उता हता, ( एवं भाप्सइ) विशेष प्रभामा मे मीने मा प्रमाणे ४डता ता, ( एवं पण्णलेइ ) अध भासे से मीलने विना ५७ये से उता उता ( एवं परूवेइ) भने ।
४ ५७वामां आवे त्यारे ४डत। -(एवं खलु देवाणुप्पिया पासावच्चिज्जा थेरा भगवंता) वानुप्रिया! पाव नाथ भगवानना प्रशिष्यो, स्थावर मात
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨