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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका २० २ उ०५ ० ८ तुङ्गिकानगरिस्थआपकवर्णनम् ८४७ विशेषाः, गन्धर्वा महोरगाश्च व्यन्तरविशेषाः, तदादिभिः = तत्प्रभृतिभिर्देवगणैः " निग्गंथाओ पावयणाओ" नैग्रंथात् प्रवचनात् " अणइकमणिज्जा" अनतिक्रमणीया:-अति क्रामयितुमशक्याः निर्ग्रन्थप्रवचनात्-चालयितुं देवादयोऽपि न समर्था भवन्तीति भावः । पुनश्चते श्रमणोपासकाः कीदृशाः ? इत्याह-"निग्गंथे पावयणे " नैर्ग्रन्थे-प्रवचने " निस्संकिया" निश्शङ्किताः शङ्कारहिताः नैन्थे प्रवचने इदमित्थं नेत्थंवेतिरूपा न काऽपि तेषां शङ्कावर्त्तते इति भावः । “निक्कं. खिया " निष्कांक्षिताः, कासा=परमताभिलापः, तद्रहिताः परमतानभिलाषिण इत्यर्थः 'निबितिनिच्छिया' निर्विचिकित्सिताः-विचिकित्सा-फलं प्रतिसन्देहः तेन बर्जिताः-फलसन्देहरहिता इत्यर्थः। 'लहा' लब्धार्थाः अर्थ श्रवणात् , ' गहीयहा" इत्यादि देवगण भी ( अणइकमणिजा ) रंचमात्र चलाने के लिये समर्थ नहीं हो सकते थे। ये श्रमणोपासक (निग्गंथे पावयणे ) उस निर्ग्रन्थ. प्रवचन में (निस्संकिया ) शंकारहित थे यह इस प्रकार से है कि नहीं है इस प्रकार के संदेह से रहित थे। (निक्कंखिया ) परमत को अपनाने की भावना इनके अन्तः करण में स्वप्न में भी नहीं होती थी। निधितिगिछिया) जैनधर्म प्रतिपादित मार्ग का अनुष्ठान निष्फल होता है इस प्रकार फल में संदेह इनके चित्त में नहीं था ( लट्ठा) अर्थ के श्रवण से ये लब्धार्थ थे । (गहियट्ठा ) अर्थ के अवधारण से ये गृहीतार्थ थे। ( पुच्छियट्ठा) जिस अर्थ में इन्हें संदेह होता था उस अर्थ को ये पूछकर निश्चय कर लेते थे । अतः ये पृष्ट अर्थ का इन्हें अच्छी तरह से વિગેરે ચારે વ્યન્તર વિશેષ છે. ગરુડ-ગરુડનાચિહ્નવાળા સુવર્ણકુમાર, ગંધર્વ भने भा२३ से ५४ व्य-तविशेष छ त्याह वा ५५ (अणइकमणिज्जा) तेभने २०४मात्र ५५ यसायमान ४२वाने समर्थ नहता. ते श्रम! पासी (निगंथे पावयणे) निथ प्रवयनमा ( निस्संकिया ) A२हित ता -તે દ્વારા પ્રતિપાદિત તત્ત્વોમાં તેમને કઈ પણ પ્રકારને સંદેહ તે નહીં. ( निक्कंखिया ) ५२ मतने मापनावपानी ४-छ। तभने २१ममा ५५] थती नही. (निव्वितिगिच्छिया) “नयममा प्रतिपाहित भागनु अनुष्ठान नि नय छ," मे ३॥ विशनी हड तमना वित्तमा ४ी मत नली (लदादा ) मना श्रवणुने सीधे त evधार्थ उता. ( गहियट्ठा) मना अवधारथी ते। गृहाता ता. (पुच्छियटो) २ अर्थमा तेमने सटेड थत त मर्थ જ્ઞાનીને પૂછીને પિતાના સંદેહનું તેઓ નિર્વાણ કરતા હતા. તેથી તેઓ પૃષાર્થ શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨
SR No.006316
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1114
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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