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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श० २३०५सू. १ अन्यमतनिरासपूर्वकस्वमतनिरूपम्ण ८११ अन्येषां स्वात्मव्यतिरिक्तानां देवानां सम्बन्धिनीः देवीः “ अभिमुंजिय अमिजुजिय" अभियुज्याभियुज्य वशीकृत्य वशीकृत्य परिचारयति, तैः सह वैषयिकं भोगं परिभुंक्ते इत्यर्थः २ । “ अप्पणिचियाओ देवीओ अभिमुंजिय अभिमुंजिय परियारेइ" आत्मीयादेवीः स्वसम्बन्धिनीः देवीः अभियुज्याभियुज्य परिचारयति २ । “अप्पणामेव अप्पाणं विउविय विउब्धिय परिचागेइ " आत्मनैब स्वे नैव आत्मानं स्वं देवत्वेन देवीत्वेन वा विकुळ विकुय॑ नो परिचारयति । ३ । " एगे वि य णं जीवे" एकोऽपि च खलु जीवः “एगेणं समएणं एगं वेदं एइ" " एकस्मिन् समये एकमेव वेदं वेदयति." तं जहा इत्थिवेयं वा पुरिसवेयं वा" स्त्रीवेदं वा पुरुषवेदं वा " जं समयं इत्थिवेयं वेएइ णो तं समयं पुरिसवयं एई" में उत्पन्न हुआ वह देव अन्यदेवों को तथा अन्य देवों की देवियों को बार बार अपने वश में करके उनके साथ परिचारणा करता है।तथा(अप्पणिच्चियाओ देवीओ अभिमुंजिय अभिमुंजिय परियारेह) अपनी देवियों को बार बार अपने वशमें करके उनके साथ परिचारणा करता है । (अप्पणामेव अप्पाणं) अपने आप से अपने आपको (बिउब्विय विउब्विय ) वैक्रियशक्ति द्वारा देव और देवी के रूप में उत्पन्न कर के (नो परियारेइ) परिचारणा नहीं करता है । अतःइस कथन से यही निष्कर्ष निकलता है कि (एगे वि य णं जोवे ) एकजीव ( एगेणं समए. ण) एकसमय में ( एगं वेयं वेएइ) एक ही वेद का वेदन करता है। (तं जहां ) जैसे ( इत्थियवेयं वा पुरिसक्यं वा ) या तो वह एक समय में स्त्री वेद का वेदन करेगा या पुरुषवेद का -दो वेदों का युगपत् एक समय में वह वेदन नहीं करेगा। क्यों આદિથી યુક્ત દેવલેમાંના કેઈ પણ એક દેવકમાં ઉત્પન્ન થયેલે તે દેવ, અન્ય દેવોને તથા અન્ય દેવોની દેવીઓને વારં વાર પિતાને વશ કરીને तेभनी साथे विषयसुम मागवे छे. तथा (अप्पणिच्चियाओ देवीओ अभिजु. जिय अभिज जिय परियारेइ) पातानी हवामाने शरीने पार पा२ तेभनी साथ विषयसुण सागवछ. ( अप्पणामेव अप्पाणं ) पोते पातानी नत ( विउव्विय विउब्बिय ) वैठिय शतिथी हेव भने हेवी ३५ उत्पन्न शन ( नो परियारेइ ) विषयसुम लागत नथी. २0 अननु ताप ये छ है( एये वि य णं जीवे ) मे ७१ ( एगेण समएणं) मे सभये ( पगं वेयं वेएइ ) मे २१ वहन वहन ४२ छ. (तजहा-इन्थियवेयं वा पुरिसवेय वा) કાંતે તે સ્ત્રીવેદનું વેદન કરે છે, કાંતે પુરુષવેદનું વેદન કરે છે અને વેદનું શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨
SR No.006316
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1114
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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