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भगवतीसूत्रे 'उवागच्छित्ता' उपागत्य " समणं भगवं महावीर वंदति नमसंति " श्रमणं भगवन्तं महावीर वन्दन्ते नमस्यन्ति "वंदित्ता नभंसित्ता” वन्दित्वा नमस्यित्वा " एवं वयासी" एवं वक्ष्यमाणप्रकारेणावादिषुः । किमवादिषुरित्याह "एवं खलु देवानुप्रियाणामन्तेवासी । “ खंदए नामं अणगारे पगइ भद्दए " स्कन्दक नामानगारः प्रकृतिभद्रकः प्रकृत्या स्वभावेन भद्रक इति प्रकृतिभद्रकः “पगइ विणीए " प्रकृति विनीतः स्वभावेनैव विनयवान् " पगइ उपसंते " प्रकृत्युपशान्तः प्रकृत्या स्वभावेनैवोपशमवृत्तिमानित्यर्थः । “पगइपयणुकोहमाणमायालोभे' प्रकृति प्रतनुक्रोधमानमायालोभः स्वभावत एव प्रतनुक्रोधमानमायालोभः " मिउमद्दवसंपन्ने" मृदुमार्दवसंपन्नः परिणामसुखमादेवयुक्तः " अल्लीणे" जहां श्री श्रमण भगवान् महावीरप्रभु विराजमान थे वहां पर आये । 'उ. वागच्छित्ता' वहां आकर उन्होंने समणं भगवं मगहावीरं वंदइ नमसइ' श्रमण भनवान् महावीर को वंदना की नमस्कार किया वंदित्ता नमंसित्ता' वंदना नमस्कार करके ' एवं वयासी' फिर उन्हों ने उनसे इस प्रकार कहा, क्या कहा-सो सूत्रकार इसी बात को प्रकट करते हैं- 'एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी खंदए नामं अणगारे पगइभद्दए' हे भदन्त ! आप देवानुप्रिय के अन्तेवासी स्कन्दक नाम के अनगार जो स्वभाव से भद्र थे' 'पगइविणीए ' स्वभाव से ही विनीत थे' ' उवसंते ' स्वभाव से ही जो उपशान्त वृत्ति वाले थे 'पगइपयणुकोमाणमायालोभे' स्वभाव से ही जिनमें क्रोध' मान 'माया और लोभ अतिशय अल्प मात्रा में थे 'मिउमदवसंपन्ने ' स्वभाव से ही सुखद परिणामवाले मार्दव धर्म से जो युक्त थे'' अल्लीणे ' तप और संयम आदि की
न्यां श्रीश्रम मावान मडावी२५ वितता, त्यो माया. "उवागच्छित्ता" त्या भावाने तमो समणं भगवं महावीर वंदइ नमसह" श्रम सरावान महावीरने १४ नम२४.२ ४ा. “ वंदित्ता नमंसित्ता " ! नम२४२ ४शन "एवं क्यासी " 20 प्रमाणे ४घु-" एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी खदए नामं अणगारे पगइभद्दए " 3 महन्त ! २॥ वानुप्रियना शिष्य, २४४४ नामना मा२ २ स्वभावे भद्र हुता, " पगइविणीए" र स्वभाव विनीत ता, " उवसंते" मे स्वभाव 6५idवृत्तिता ' " पगइ पयणु कोहमाणमाया लोहे) स्वालाविशतभनाभांशोध, भान, भाय। मने सोल अतिशय २५६५ प्रभामा तो, " मिउमद्दवसंपन्ने" स्वमाथी ०४ सुमह परिणामामा मा६५ यम था रेसा युक्त खता, " अल्लीणे" त५, सयम
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨