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प्रमेयचन्द्रिका टीका श० २ १०१ सू. १६ स्कन्द कवरितनिरूपणम् ७३९ -परित्यजामि शरीरविषयं मोहमपि परित्यजामीति भावः "तिकडु” इति कृत्वा इति परिचिन्त्य “ संलेहणा झूमणा झूसिए" संलेखना जोषणा जुष्टः भत्तपाणपड़ियाइक्खिए " भक्तपानप्रत्याख्यातः प्रत्याख्यातभक्तपानः "पाओवगए " पादपोपगतः पादपोपगमननामकं संस्तारकं संप्राप्तः "कालं अणवकंखमाणे विहरइ" काल मृत्युम् अनवकांक्षन् अनिच्छन् विहरति तिष्ठतीति। "तएणं से खंदए अणगारे" ततः खलु स स्कन्दकोऽनगारः “समणस्स भगवओ महावीरस्स" श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य " तहारूवाणां थेराणमंतिए" तथारूपाणां स्थविराणामंतिके “ सामाइयमाझ्याइं ” सामायिकादीनि “ एक्कारसअंगाई अहिश्वास तक छोड़ता हूं। अर्थात् मैं शरीरविषयक मोह का भी परित्याग करताहूं। 'त्तिकट्टु' इसप्रकार मन में विचार कर 'सलेहणा झूसणाभूतिए' काय और कषाय की कृश करनेवाली संलेखना को स्वीकार लिया 'भत्तपाणपडियाइक्खिए' उन स्कन्दक अनगार ने भक्त पान का प्रत्या. ख्यान कर दियाऔर 'पाओवगए' पादपोपगमन नामक संथारे में स्थित हो गये। उस स्थिति में उन्हों ने 'कालं अगवखमाणे विहरइ ' अपने मरण की चाहना नहीं की, तात्पर्य कहने का यह है कि संलेखना में स्थित हुआ मुनि यदि अपने मरण की या जीवन की आशंका करता है-तो उसमें उसको अतिचार का पात्र होना पड़ता है। इसलिये यहां कहा गया है कि स्कन्दक अनगार ने पादपोपगमन संथारा धारण कर अपने मरण की आकांक्षा नहीं की अर्थात्-वह पादपोपगमन संथारा उनका बिलकुल निरतिचार था । (तएणं से खंदए अणगारे) इस तरह उन स्कन्दक अनगार ने (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमण વાસ નિવાસ પર્યન્ત ત્યાગ કરૂં છું-એટલે કે એ શરીરનો મેહ પણ છોડું छु: “त्तिक? " भनमा सेवा विया२ ४शन “संलेहणा असणा झसिए" जय॥ मने पायाने क्षीण ४२ना२ सथा। ध्या. “ भत्तपाणपडियाइक्खिए" तभो यारे प्रा२ना माहारा त्याग ४ " पाओवगए " पाहपोपशमन नामनी सथारे। ध्या. मे स्थितिमा तेमाणे " कालं अणवकंखंमाणं विहरह" પિતાના મરણની પણ આકાંક્ષા રાખી નહીં. કારણ કે સંથારી કરનાર મુનિ જે પિતાના મરણની કે જીવનની આકાંક્ષા રાખે તે તેને અતિચાર દેષ લાગે છે. તેથી જ અહીં કહ્યું છે કે સ્કન્દક અણગારે પાદપપગમન સંથારે કરીને પિતાના મરણની આકાંક્ષા કરી નહીં. એ રીતે તેમને પાદપપગમન सथा। मतिय५२ हषयी २डित तो. "तएण से खंडए अणगारे " । रीत ते २४.६३ २७॥" समणल्स भगवओ महावीरस्स तहास्वाणं घेराणं अतिए
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨