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भगवतीसूत्रे
६८० भिक्षुप्रतिमामुपसम्पच स्कन्दको विहरति, विधिपूर्वकं समाराध्य आज्ञाया आराधको भवति इति । तत्राष्टम्यां भिक्षुप्रतिमायां चतुर्विधाहारपरित्यागपूर्वकमेकान्तरोपवाससेवनम् , ग्रामाद्वहिः कायोत्सर्गकरणम् , उत्तानक-पाश्चिकनषधिकेति त्रिषु आसनेषु एकस्यासनस्य स्वीकरणम् । तत्र यदि शयीत तदा उत्तान एकपाश्यों वा शयीत। यदि आसीत तदा नैषधिकेनासनेन आसीत् । निषधया जातं नैषधिकम् । निषधानाम-उपवेशनप्रकारः सा पञ्चविधा-समपादपुता-१, गोनि. पधिका-२, दृस्तिशुण्डिका ३, पर्यङ्का-४, अधपर्यङ्का५, चेति । तत्र यस्यां समो होती है, तथा तृतीय भिक्षु प्रतिमा को अर्थात् दशवी भिक्षु प्रतिमा को कि जो सात दिनरात में आरोधित होती है उन स्कन्दक अनगार ने सविधि आराधिन कर वे (आज्ञया आराधको भवति ) आज्ञा से इनका आराधन करने वाले बन गये। इन प्रथमा, द्वितीया और तृतीया प्रतिमाओं के बीच में जो प्रथमा-आठवीं-भिक्षुप्रतिमा है-उसमें चतु विध आहार का परित्याग करते हुए एकान्तरोग्वास करना चाहिये। गांव से बाहर कोयोत्सर्ग करना चाहिये। उत्तानक, पाश्चिक , एवं नैषधिक इन तीन आमनों में से किसी एक आसन को स्वीकार करना चाहिये । यदि मोवे तो उस समय उत्तानक या एक पाचहोकर सोवे यदि बैठे तो उस समय नैषधिक आसन से बैठे। (निषद्या ) यह बैठने का एक प्रकार होता है. इससे होने वाला नैधिक कहलाता है। निषद्या पांच प्रकार की कही गई है-१ समपादपुता, २ गोनिषद्यिका ३ हरित शुण्डिका, ४ एर्यक्षा और ५ अर्धपर्यका । जिम आसन में दोनों पैर और पुत-बैठक भूमि का स्पर्श અને ત્રીજી પ્રતિમા, એટલે કે દસમી ભિક્ષુ પ્રતિમા કે જેની આરાધના પણ सात हिनरात ४२वा ५ छ, तेनू ५५ २४६४ सारे विधि पूर्व “आज्ञया आराध को भवति " शाखाज्ञा प्रमाणे माराधन प्रयु. मात्र प्रतिभासमानी પહેલી (આઠમી ભિક્ષુપ્રતિમા ) નું આરાધન કરનારે ચાર પ્રકારના અહારનો ત્યાગ કરીને એકાન્તર ઉપવાસ કરવા જોઈએ. ગામની બહાર કાન્સર્ગ કરે જોઈએ. ઉત્તાનક, પાર્ષિક અને નિષધિક, એ ત્રણમાંના કેઈ પણ એક આસને બેસવું જોઈએ સૂવે ત્યારે ચત્તા અથવા એક પડખે સૂવે. બેસે ત્યારે નધિક सासन से “ निषद्या" ये सवानी से शत छ. ते २१ मनdi मास નને નૈષધિક કહે છે. તે નિષદ્યા પાંચ પ્રકારની કહી છે-(૧) સમપાદપુત, (२) गानिषधि, ( 3) स्तिशु31, ( ४ ) ५४। मने (५) 4 4 1.
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨