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प्रमेयचन्द्रिका टीका श० २७०१ सू० १३ स्कन्दकचरितनिरूपणम् ६५१ त्वात् , यद्वा 'शोभितः' इतिच्छायापक्षे शोभासम्पन्नः त्यागवैराग्यवच्चात् , 'अनियाणे' 'अनिदान:-नि=नितरां दीयते-छिद्यते-आत्मभूमिजात-सम्यक्त्वाकुरित-विविध विमलभावनासलिल संवर्द्धित-ध्यानक्रियापल्लविताऽखण्ड तपः संयमाद्यनुष्ठानपुष्पित-मोक्षफल सुभूपिक कुशलकल्पवृक्षो येन-ऐहिक चक्रवर्त्यादि पारलौकिक देवद्धर्यादि पदमाप्तिजन्यविषयसुखाभिलाषरूपनिशितधारकुठारेण में रखने वाले थे । ( सोहिए ) पद यह प्रकट करता है कि स्कन्दक अनगार अपने महाव्रतों में निर्दाष थे, अतिचारों से रहित थे । अथवाशोभित थे । अर्थात् त्याग और वैराग्यशाली होने से शोभासम्पन्न थे। ( अणियाणे) महाव्रतों की आराधना करते हुए भी उन्हें इसलोक संबंधी या परलोक संबंधी किसी भी प्रकार के सुखों को चाहना नहीं थी। अर्थात् ये निदान बंध रहित थे ! ( नितरां दीयते छिद्यते ) (इति निदानम् ) इस व्युत्पत्ति के अनुसार यह निदान, आत्मा रूप भूमि में उत्पन्न हुए कुशल कर्मरूप कल्पवृक्ष को कि सम्यक्त्वरूप अङ्कुर वाला होता है, तथा अनेक प्रकार की निर्मल भावना रूप जल से सिंचित होकर जो आत्मारूप भूमि में वृद्धिंगत होता है, ध्यान रूप क्रिया ही जिसके पल्लव होते हैं, अखण्ड तप एवं संयम आदि रूप अनुष्ठानही जिसके जीवन में सुन्दर २ विकासित पुष्प होते हैं, और मोक्ष रूप फल से जो अच्छी तरह से शोभित होता है वह इसलोक संबंधी चक्रवर्ती आदि पद की प्राप्ति जन्य तथा परलोक संबंधी देवआदि पद की प्राप्ति जन्य विषयसुख की अभिलाषारूप निशित-तीक्ष्णधार २मानुं सामथ्र्य तु. ( सोहिए ) २४६४ अणु ॥२ भारतमा निषि उता એટલે કે અતિચારોથી રહિત મહાવ્રતોનું પાલન કરનાર હતા. અથવા ત્યાગ भने वैश्यना गुणेथी सुशामित उता. ( अणियाणे ) भारतानी माराधना કરવા છતાં પણ તેઓ આલેક કે પરલેકના સુખની ઈચ્છા વગરના હતા. मेट है तो नियाथी २डित ता. (नितरां दीयते छिद्यते इति निदानम् ) નિદાનની આ પ્રમાણે વ્યુત્પત્તિ થાય છે. એટલેકે–આત્મારૂપી ભૂમિમાં ઉત્પન્ન થયેલ કુશલ કર્મ રૂપ કલ્પવૃક્ષ કે જે સમ્યકત્વ રૂપ અંકુર વાળું હોય છે, તથા જે અનેક પ્રકારની નિર્મળ ભાવનાઓ રૂપી જળ વડે સિંચિત થઈને આત્મારૂપી ભૂમિમાં વૃદ્ધિ પામતું હોય છે તથા ધ્યાનરૂપી ક્રિયા જ જેનાં વાદળાં છે તથા અખંડ તપ અને સંયમ રૂપ અનુષ્ઠાન જ જેનાં સુંદર પુષ્પો હોય છે, અને મોક્ષ રૂપી ફળથી જે અત્યંત શોભાયમાન હોય છે, તેવા કુશલ કર્મરૂપ કલ્પવૃક્ષને, ચકવતિ વગેરે પદવીની પ્રાપ્તિ રૂપ આલેકના સુખ
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨