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प्रमेयचन्द्रिका टीका श० २ उ० १ सू० १३ स्कन्दकचरितनिरूपणम् ६२१ महालयाए परिसाए " तस्यै च महातिमहालयायै परिपदे “धम्म परिकहे " धर्म परिकथयति “ धम्मकहा भाणिअव्वा" कर्मकथा भणितव्या " अस्थि लोए अत्थि अलोए " इत्यादि रूपा धर्मकथा औपपातिकसूत्रस्य पूर्वार्धे षट्पञ्चाशत्तमे सूत्रे विलोकनीया, “तएणं से खंदए कच्चायणस्स गोत्ते" ततः खलु स स्कन्दकः कात्यायन गोत्रः " समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं" श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यांतिके धर्म " सोच्चा" श्रुत्वा" णिसम्म ” निशम्य हृदि अवधार्य " हट्ठ तुट्ट जाव हियए" अत्र यावत्पदेन " चित्तमाणदिए पीइमणे परमसोउस आई हुई बडी भारी परिषद को (धम्म परि कहेइ) चारित्र रूप धर्म का उपदेश दिया। (धम्मकहा भाणियव्वा ) धर्मकथा कहनी चाहिये-(अस्थि लोए अस्थि अलोए ) इत्यादिरूप धर्मकथा औपपातिक के पूर्वार्ध में छप्पनवेंसूत्र के अंदर है, सो वहां से देख लेनी चाहिये। (तएणं से खदए कच्चायणसगोते समणस्स भगवओ महावीरस्स
अंतिए धम्म सोच्चा णिसम्म हट्ट तु जाव हियए) स्कन्दक परिव्राजक ने श्रमण भगवान महावीर के मुख से जब धर्मकथा सावधान होकर सुनी तो सुनकर और उसे हृदय में अवधारण कर उसका चित्त बहुत हर्षित हुए, अतितुष्ट हुए, द्रष्ट तुष्ट का तात्पर्य अतितुष्ट है। अथवा -हृष्ट शब्द का अर्थ हर्षित और तुष्ट शब्द का अर्थ-धर्मकथा के श्रवण से प्राप्त संतोषवाला ऐसा है चित्त जिसका-वह हृष्ट तुष्ट चित्त है। इसी लिये आनंद को प्राप्त हुए-मानसिक उल्लासवाले हुए (पीहमणे) मन में तृप्ति से युक्त हुए अर्थात् भगवान् की अमृत जैसी
०ी थी upll at भाटी समाने " धम्म परिकहेइ " श्रुत यारित्र ३५ धर्मना दीपो. "धम्मकहा भाणियव्वा " मी यम था की
2. ते ४था ४१ " अस्थि लोए अत्थि अलोए" त्यादि ३५ ધર્મકથા પપાતિક સૂચના પૂર્વાર્ધમાં છપ્પનમાં સૂત્રથી જિજ્ઞાસુઓએ त था वांय सेवी. “ तएण से खदए कच्चायणस्स गोते समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा णिसम्म तुट्ठ जाव हियए" કાત્યાયન ગેત્રીય સ્કંદ પરિવ્રાજકે જ્યારે તે ધર્મકથા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને મુખેથી એકચિત્તે સાંભળી અને હદયમાં અવધારણ કરી ત્યારે તેમને ઘણે હર્ષ થયે, અને તેમને ઘણે સંતોષ થયો. ( હષ્ટ તુષ્ટ એટલે અતિશય દુષ્ટ અથવા હટ એટલે હષિત અને તુષ્ટ એટલે ધર્મકથા સાંભળીને सतोष पामेरा ) तमना Gerसनी पार न २ह्यो, “पीइमणे " भगवाननी अमृत पी पाणी सलगीन तेभर्नु मन प्रसन्न थयु, तेभर्नु भन " परमसो
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨