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भगवतीसूत्रे ने कदाचिन्नासीत् , 'जाव णिच्चा' यावनित्या आ यावत्पदेन ' न कयाइ न भवइ, न कयाइ न भविस्सइ, भविंसु य, भवइ य, भविस्सइ य, धुवा, णिइया, सासया, अक्खया, अधया, अवडिया' इति संग्राह्यम् । कालतः पूर्वमप्यासीत् सिद्धिरिदानी विद्यते भविष्यति चानागतकालेपि अतो ध्रुवाधारभ्य नित्या चेति भावः । 'भावओ य जहा लोयस्स तहा भाणियव्या' भावतश्च यथा लोकस्य तथा भणितव्या, भावतश्च सिद्धेवक्तव्यता लोकरदेव ज्ञातव्येति भावः । तथा चभावतः सिद्धिरनन्तवर्ण गन्धरसस्पर्शपर्यायरूपा, अनन्तसंस्थानपर्यायानन्तगुरु. घुलपर्यायानन्तागुरुपर्यायरूपा, नास्ति तस्या अन्त इति । 'तत्य दव्यो सिद्धी स अंता' तत्र द्रव्यतः सिद्धिः सांता — खेतओ सिद्धी स अंता' क्षेत्रतः सिद्धिः स्व ही सिद्ध होता है। क्यों कि भूतकाल में कभी भी कोई दिन ऐसा नहीं हुआ कि जय सिद्धिका सद्भाव न रहा हो। 'जाव न कयाइ न भवइ, न कयाइ न भविस्सइ, भविसु य, भवइ य, भविस्सइ य, धुवा, गिइया, मासया, अक्खया, अव्वया, अवट्ठिया, णिचा' काल से सिद्धि पहिले भी थी अब भी है, और आगे भी रहेगी। इस कारण बह ध्रुव है नियत है शाश्वत है अक्षय है अव्यय है अवस्थित है और निल है । 'भावओ जहा लोयस्त तहा भाणियन्या' भाव की अपेक्षा से सिद्धि विषयक वक्तव्यता भाव से लोक की वक्तव्यता के समान जाननी चाहिये । इस तरह भाव से सिद्धि अनन्तवर्ग, गंध, रस, स्पर्श पर्यायरूप है, अनंतसंस्थान पर्यायरूप है। अनन्त गुरुलघुपर्यायरूप अनंत अगुरुलघुपर्यायरूप है। इसका कभी अन्त नहीं आता है। इस तरह 'दव्यओ सिद्धि स अंता खेत्तओ सिद्धी स अंता' द्रव्य और क्षेत्रसे सिद्धि सान्त है तथा સાબિત થાય છે કારણ કે ભૂતકાળમાં એ કઈ પણ સમય ન હતો કે न्यारे तनुं मस्तित्व न डाय 'जाव न कयाइ न भवइ, न कयाइ न भविस्सइ, भासु य, भवइ य, भविस्सइ य, धुवा, णिइया, सासया, अक्खया, अव्वया, अवट्टिया णिचा " नी अपेक्षाय भूतमा सिदिनु मस्तित्व હતું, વર્તમાન કાળમાં પણ છે અને ભવિષ્યમાં પણ રહેશે. કારણ કે તે ધ્રુવ नियत शाश्वत, अक्षय, भव्यय, अवस्थित मने नित्य छे. “भावओ य जहा लोयस तहा भाणियव्या भावना अपेक्षा नी मनतात सामित કરવામાં આવી છે, એજ રીતે સિદ્ધિની પણ અનંતતાનું પ્રતિપાદન કરી શકાય છે. આ રીતે ભાવની અપેક્ષાએ સિદ્ધિ અનંત વર્ણ, ગંધ, રસ, સ્પર્શ અને સંસ્થાના પર્યાયરૂપ છે; તે અનંત ગુરુલઘુ પર્યાયરૂપ છે, અનંત અગુરુલઘુ पर्याय३५ छे. तेना ही मत नथी. माशते " दधओ सिद्धी स अंता, खेतो सिद्धीस अंता" ०यनी भने क्षेत्रनी अपेक्षा सिद्धि सन्तयत
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨