________________
भगवतीसूत्रे न्तवांश्च, यश्च क्षेत्रलोकः स चासंख्येय कोटाकोटी योजनपर्यन्तो दैयविस्ताराभ्यामित्यर्थः । 'असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ परिक्खेवेणं पण्णत्ता' असंख्येया योजनकोटो कोटयः परिक्षेपेण प्राप्ताः, तथा तस्य क्षेत्रलोकस्य परिघिरसंख्येययोजनकोटोकोटि परिमितः कथितः · अस्थि पुण से अंते ' अस्ति पुनस्तस्यान्तः द्रव्यलोकस्य यथोक्तलक्षणकस्यान्तो विद्यते । स चान्तबानित्यर्थः । ' कालओ णं न कयाइ न आसी न कयाइ न भवइ न कयाइ न भविस्सइ ' कालतः खलु लोको न कदाचित् नासीत् न कदाचित् न भवति न कदाचित् न भविष्यति, अपि है । तथा इसकी जो परिधि कही गई है वह असंख्यात कोडा कोडी योजनों की कही गई है। इस तरह चार प्रकार के लोकों में से जो द्रव्य से लोक एक है और सान्त है। क्षेत्र से लोक असंख्यात कोटा कोटी योजन तक लंबाई चौड़ाई वाला है, तथा इसकी परिधि-घिराव भी असंख्यात कोटाकोटी योजन की है ईसलिये ' अस्थि पुण से अंने इस प्राकार लोक द्रव्य से और क्षेत्र से सान्त-अन्त सहित है। क्षेत्र की अपेक्षा लोकका वह स्थान लिया गया है जो असंख्यात कोडाकोडी योजन तक लंबा चौड़ा है। क्यों कि इसी में जीवादिक द्रव्य रहते हैं परिधि भी इस की इतनी ही है । अतःहतना सब कुछ होने पर भी वह समर्यादित बन जाने के कारण सान्त-अन्तसहित कहा गया है। “काल
ओ णं लोए न कयाइ न आसो न कयाइ न भवइ न कयाइ न भवि. स्सइ" काल से लोक-भूतकाल में कभी किसि समय नहीं था ऐसा नहीं, वर्तमान में वह कभी किसी समय नहीं है ऐसा भी नहीं है और भविष्यकाल में वह कभी किसी समय नहीं होगा ऐसा भी नहीं અસંખ્યાત કેડા, કડી જનની કહી છે. આ રીતે વિચાર કરતાં તે વાત સિદ્ધ થાય છે કે દ્રવ્યની તથા ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ લેક સાત ( અંત સહિત) છે. ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ લેકને અસંખ્યાત કેડા, કેડી જન લો તથા પહેળે કહ્યો છે. અને તેમાં જ જીવાદિક દ્રવ્ય રહે છે. તેને પરિધિ (ઘેરાવો) પણ એટલે જ છે. આ બધું હોવા છતાં પણ તે મર્યાદા સહિત હોવાથી તેને सान्त (मत युत) ह्यो छे. "कालओ णं लोए न कयाइ न आसी न कयाइ न भवइ, न कयाइ न भविस्सइ" नी अपेक्षा लिया२ ४२वामां माता ભૂતકાળમાં કોઈ એ સમય ન હતું કે જ્યારે તેનું અસ્તિત્વ ન હોય, વર્તન માન કાળે પણ કોઈ એવે સમય હોતું નથી કે જ્યારે લેકનું અસ્તિત્વ ન હાય, ભવિષ્યમાં પણ કઈ એવો સમય નહીં હોય કે જ્યારે લેકનું અસ્તિત્વજ
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨