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प्रमेrचन्द्रिका टीका श० २ उ० १ सू० १२ स्कन्दकचरितनिरूपणम्
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काल्तः खलु सिद्धिर्न कदाचिन्नासीत् यावत् नित्या | भारतश्च यथा लोकस्य तथा भणितव्या तत्र द्रव्यतः सिद्धिः सांता, क्षेत्रतः सिद्धि सांता, कालतः सिद्धिनेता, भावतः सिद्धिरनन्ता ||३|| योऽपि च ते स्कन्दक ! यावत् किमनन्तः सिद्धः तदेव यावत् द्रव्यतः खलु एकः सिद्धः सांतः, क्षेत्रतः सिद्धोऽसंख्येयप्रदेशिको
जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिवखेवेणं पण्णत्ता) क्षेत्र से सिद्धि की लंबाई और चौडाई ४५ पैतालीस लाख योजन की है। और इसकी परिधि एक करोड़ ४२ बयालीस लाख तीस हजार दो सो गुनचास ४९ योजन से भी कुछ अधिक है ( अत्थि पुण से अंते ) इस अपेक्षा वह सिद्धि अन्त सहित है । ( कालओ णं सिद्धी न कयाइ न आसी जाव णिच्चा) काल से सिद्धि भूतकाल में कभी नहीं हुई ऐसी बात नहीं है, यावत् वह नित्य है ( भावओ य जहा लोयस्स तहा भाणियव्वा ) भाव से सिद्धि लोक की तरह जाननी चाहिये । इस तरह ( दव्वआ सिद्धिस अंता, खेप्तआ सिद्धी स अंता कालआ सिद्धी अनंता, भावओ सिद्धी अनंता ) द्रव्य से सिद्धि अन्त सहित है, क्षेत्र से भी सिद्धि अन्त सहित है । पर काल से सिद्धि अन्त रहित है-अनन्त है और भाव से भी सिद्धि अन्त रहित है - अनन्त है ३ |
(जे वि य ते खंदया जाव किं अणंते सिद्धे-तं चैव जाव दव्वओ एगे सिद्धे स अंते, खेतओ णं सिद्धे असंखेजपए सिए, असंखेज्जपए
विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ता ) क्षेत्रनी अपेक्षा मे सिद्धिनी संमा भने महोपाध ૪૫ લાખ ચેાજનની છે, અને તેની પરિઘ (પરિમિતિ) એક કરોડ ખેતાળીસ साथ त्रीस हुन्नर जसो योगापयास येोन्नाथी ४ वधारे छे. (अत्थि पुण से अते ) मा दृष्टिमे वियारवामां आवे तो सिद्धि मत सहित छे. ( कालओ णं सिद्धी न कयाइ न आसी जाव णिच्चा ) " अजनी अपेक्षाओ ભૂતકાળમાં કદી પણ સિદ્ધિનું અસ્તિત્વ ન હોય એવું અન્યું નથી'' ત્યાંથી શરૂ उरीने ते नित्य हे" त्यां सुधीनो पाठ श्रड ४२वे. ( भावओ जहा लोयरस तहा भाणिव्वा ) लावनी अपेक्षाओ सिद्धिना विषयभां बोउनी नेम न समन्वु. मारीते ( दव्वओ सिद्धि सअंता, खेत्तओ सिद्धी सअता, कालओ सिद्धीअणंता, भावओ सिद्धी अनंता ) द्रव्यनी अपेक्षाओं सिद्धि संत सहित छे. ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ પણ સિદ્ધિ અંત સહિત છે અને ભાવની અપેક્ષાએ પણ सिद्धि अंत रहित छे. ( जेत्रिय ते खंड्या जाव किं अगंते सिद्धे तं चेवजाब दब्वओ णं एगे सिद्धे सअते, खेत्तओणं सिद्धे असंखेज्जपएसिए, असंखे
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨