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प्रमेयचन्द्रिका टीका श० २ उ० १ सू० ११ स्कन्दकचरितनिरूपणम् ५५७ हृदयः, हर्षवशेन प्रमोदातिरेकेण विसर्प-विस्तारं गच्छद् हृदयं मनो यस्य स हर्षवशविसर्पद् हृदयः अपूर्व हर्षोल्लसितहृदयः सन् ‘जेणेव समणे भगवं महा. वीरे' यौव श्रमणो भगवान् महावीरः विराजते ' तेणेव उवागच्छइ ' तौव उपागच्छति ' उवागच्छित्ता' उपागत्य ' समणं भगवं महावीर 'श्रमणं भगवन्तं महावीरम् ‘तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ ' त्रिकृत्वः आदक्षिणप्रदक्षिणां करोति त्रिकृत्वः त्रिवारम् 'आयाहिणं' आदक्षिणतः दक्षिणक्रमेण प्रदक्षिणां करोति ‘जाव पज्जुवासइ ' यावत् पर्युपास्ते अत्र यावत् पदेन वन्दननमस्कारा. दिकं कृत्वा त्रिविधया मनोवाकायरूपया पर्युपासनया इति संग्राह्यम् । 'खंदयाइ' हे स्कन्दक ! इति 'समणे भगवं महावीरे' श्रमणो भगवान महावीरः 'खंदयंकच्चायणस्सगोत्तं एवं वयासी' स्कन्दकं कात्यायनगोत्रमेवमवादीत् ॥मू०११॥ उसे किसी भी प्रकार की चिन्ता नहीं रही। ‘हरिसवसविसपमाणहियए ) प्रमोद के अतिरेक से वह उस समय इतना अधिक आनन्द मग्न हो गया कि उसका हृदय उछलने लगा। इस तरह वह अपूर्व हर्ष के उत्कर्ष से उल्लसित होता हुआ (जेणेव समणे भगवं महावीरे) जहां श्रमण भगवान महावीर विराजमान थे (तेणेव उवागच्छइ) वहां पहुँचा ( उवागच्छित्ता) वहां जाकर के उसने (समणं भगवं महावीरं) श्रमण भगवान महावीर की (तिक्खुत्तो) तीन बार (आयाहिण पया. हिणं करेइ जाव पज्जुवासइ ) प्रदक्षिणा पूर्वक वन्दन नमस्कार करके मन वचन कायरूप तीन प्रकार की पर्युपासना से पर्युपासना करने लगा। फिर (खंदयाइ ) हे स्कन्दक ! ऐसा कह कर (समणे भगवं महावीरे ) श्रमण भगवान महावीर ने (खंदयं कच्चायणस्स गोत्तं एवं वयासी ) कात्यायन गोत्रीय स्कन्दक से ऐसा कहने लगे ॥सू०११॥ ४५ ४२नी यी-त. २७ी नही 'हरिसवसविसप्पमाणहियए" तेनाय. માં એટલે બધે આનંદ થયે કે આનંદથી તેનું હૃદય નાચી ઉઠયું. આ રીતે भनमा अतिशय मान सने सास साथे (जेणेब समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागज्छइ) यां श्रमण मावान महावी२ मीराता डा त्यांत पांयी गयी. ( उवागच्छित्ता) त्यां न तणे “समणं भगव महावीर) श्रम भवान महावीरनी (तिकखुत्तो) ३] पा२ आयाहिण पयाहिण करेइ जाव पज्जुवासइ) प्रदक्षिणपूर्व वहनमः४२ रीने यावत भन क्यन मने
य३५ ऋणे मारे ५युपासना (सेवा) ४२री त्या२ माई (खदयाइ) 8 २४-६४ ! मे समाधन ४रीन ( समणे भगव महावीरे )श्रम समान महा. वीर (खंदय कचायणस्सगोतं एवं वयासी "आत्यायन गात्री २४ પરિવ્રાજકને આપ્રમાણે કહ્યું કે સૂ-૧૧ |
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨