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प्रमैयचन्द्रिका टीका श. २ उ. १ सू. १० स्कन्दकचरितनिरूपणम् ५४१ धर्माचार्यो धर्मोपदेशकः श्रमणो भगवान् महावीर उत्पन्न ज्ञानदर्शनधरः अर्हन् जिनः केवली अतीतप्रत्युत्पन्नानागत विज्ञायकः सर्वदर्शी येन मम एषोऽर्थस्तव तावत् रहस्यकृतः हव्यमाख्यातः यतोऽहं जानामि स्कन्दक ! ततः स स्कन्दक: कात्यायनगोत्रो भगवन्तं गौतममेवमवादीत्-गच्छामः खलु गौतम ! तव धर्माचार्य धर्मोपदेशकं श्रमण भगवन्तं महावीरं वन्दामहे नमस्यामो यावत् पर्युपास्महे। खंदया ) स्कन्दक! सुनो बात इस प्रकार से है-(मम धम्मायरिए धम्मो वएसए समणे 'भगवं महावीरे उप्पण्णनाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली तीयपटुप्पन्नमणागयवियाणए सव्वण्णू सव्वदरिसी) मेरे धर्माचार्य धर्मोपदेशक श्रमण भगवान महावीर हैं। वे उत्पन्न ज्ञान दर्शन के धारी हैं अरिहंत हैं। जिन हैं। केवली हैं। अतीत वर्तमान और अनागत इन सब विषयोंको वे हस्तामलकवत् जानते हैं । सर्वदर्शि हैं (जेणं मम एस अहे तव ताव रहस्सकडे हव्वं अक्खाए ) उन्हों ने ही तुम्हारा रहस्यकृत मनोगतरूप अर्थ मुझ से यथावत् कहा है(जयाणं अहं जाणामि खंदया) इसीसे मैं हे स्कन्दक! इस तुम्हारे रहस्यकृत अर्थ को जानता हूं। (तएणं से खंदए कच्चायणस्त गोत्ते भगवं गोयमं एवं वयासी) गौतम के द्वारा इस बात को सुनने के बाद कात्यायन गोत्री स्कन्दक ने उन भगवान गौतम से ऐसा कहा (गच्छामो णं गोयमा! तव धम्मायरियं धम्मो वएसयं समणं भगयं महावीरं वंदामो नमसामो जाव पज्जुवासामो) हे गौतम ? चलो आपके धर्माचार्य धर्मोपदेशक श्रमण भगवान महावीर २४४४ ! सामना, पात - प्रमाणे छ (मम धम्मायरिए धम्मोवएसए समणेभगवं महावीरे उप्पण्णनाण दसणधरे अरहो जिणे केवली तीयपडुप्पन्नमणागय बिया. णए सव्वण्णू सब्वदरिसी) भा२। य याय भने धपिश श्रम समपान મહાવીર છે. તેઓ ઉત્પન્ન કેવલજ્ઞાનદર્શનના ધારક છે, અરિહંત છે, જિન છે, કેવલી છે. તેઓ ભૂત વર્તમાન અને ભવિષ્યકાળના વિષયોને હસ્તામલકની रेम (डायम २७सा मामानी भ) नयी श छ, भने सशी छे ( जेणं. मम एस अटूठे तव ताव रहरसकडे हव्वं अक्खाए') तेभणे । तमा। मगूढ, भनागत मथ (विया। प्रश्नो) भने यथार्थ ३५ ४ा छ. ( जयाणं अह. जाणामि खंदया ) 3 २४४४! तेथी दुतभार ते शुत प्रश्नो छु (तएणं से खंदए कच्चायणस्स गोत्ते भगव गोयमे एव वयासी) गौतमनी पांसेथी તે વાત જાણીને કાત્યાયન ગેત્રીય કંદકે ભગવાન ગૌતમને આ પ્રમાણે કહ્યું (गच्छामो णं गोयमा ! तव धम्मायरिय समणं भगवं महावीर वंदामो नमसामो जाव पज्जुयासामो) 3 गौतम ! यो. तमा२॥ य याय , श्रम सगवान
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨