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________________ प्रमेयवन्द्रिका टीका श०२. उ०१ सू०६ "मडाई" अनगारस्वरूपनिरूपणम् ४९७ स्यात् , निरुद्धसंसारादिविशेषण युक्तो निर्ग्रन्थनीवः सिद्धः बुद्धः मुक्तः परिनिवृतोऽन्तकृतसर्वदुःखप्रक्षीण इत्यादिशब्दैव्यवहाँ योग्यो भवतीति भावः । इदानीं प्रकरणमुपसंहरन्नाह–' सेवं भंते ' इत्यादि । ' सेवं भंते सेवं भंते' तदेवं भदन्त ! हे भगवन् यद् देवानुप्रियेण मृतादिनिर्गन्थविषये कथितं तत् एवमेव सर्वथा सत्यमेव, आप्तवाक्यस्य सत्यत्वात् , 'त्ति' इति एवंरूपेण 'भगवं गोयमे ' भगवान् गौतमः 'समणं भगवं महावीरं' श्रमणं भगवन्तं महावीरम् 'वंदइ नमसइ' वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्यित्वा 'संजमेण तवसा ' संयमेन तपसा 'अप्पाणं' आत्मानं 'भावे माणे' भावयन् 'विहरइ' विहरतीति भावः॥६॥ सध्वदुक्खपहीणे त्ति वत्तव्वं सिया) निरुद्ध संसार आदि विशेषणवाला वह निर्ग्रन्थ जीव सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वृत, अन्तकृत, सर्वदुःखप्रहीण इत्यादि शब्दों द्वारा व्यवहार करने के योग्य हो जाता है। अब प्रकरण के अर्थ का उपसंहार करते हुए गौतम स्वामी कहते हैं (सेवं भंते ! सेवं भंते!) हे भदन्त ! आप देवानुप्रिय ने जो भूत-पृथिव्यादिक एकेन्द्रिय से लेकर निर्ग्रन्थ श्रमण तक के विषय में कहा है वह सब ऐसा ही है-सर्वथा सत्य ही है। ऐसा कह कर (भगवं गोयमे) भगवान गौतम ने (समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ) श्रमण भगवान महावीर की वंदना की उन्हें नमस्कार किया। वंदना नमस्कार करके फिर वे (संजमेणं तवसा) संयम और तप से ( अप्पाणं भावेमाणे ) अपनी आत्मा को भावित करते हुए (विहरह ) विचरने लगे अर्थात् अपने आसन पर विराजमान हो गये ॥ सू०६॥ पहीणेत्ति वत्तव्य सिया) निरुद्ध म बोरे विशेषयुवाणे ते श्रम निथ જીવ, સિદ્ધ, બુદ્ધ, મુક્ત, પરિનિવૃત, અન્નકૃત અને સર્વ દુઃખ પહણ વગેરે શબ્દ ને પ્રયોગ પણ તેમને માટે કરી શકાય છે. હવે પ્રકરણને ઉપસંહાર ४२१ाना माशयथी गौतम स्वामी ४ छ (सेव भंते सेवं भते!) असावन्! આપ દેવાનુપ્રિયે પૃથિવ્યાદિક એકેન્દ્રિયથી લઈનેશ્રમણ નિગ્રંથ સુધીના જીના વિષયમાં જે કહ્યું તે યથાર્થ જ છે. તે સર્વથા સત્ય જ છે. એ પ્રમાણે કહીને (भगव गोयमे) भगवान गौतमे (समणं भगवौं महावीर वदइ नमसइ) श्रभा भावान महावीरने ४५४२, नम२४१२ ४यो । नभ२४।२ ४शन ( संजमे णं तवसा ) सयम भने तपथी (अप्पाण भावेमाणे ) पोताना मित्माने भावित २॥ (विहरइ) विया साध्या सट पाताने भासने धन मेसी गया. सूद भ६३ શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨
SR No.006316
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1114
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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