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प्रमेयचन्द्रिका टोका श०२ उ• १ सू० ५ प्राणभूतादिस्वरूपनिरूपणम् ४८७ वेदेत्ति बत्तव्वंसिया' प्राणो भूतो जीवः सत्त्वो विज्ञो वेद इति वक्तव्यं स्यात् , यदा तु उच्छ्वासादि धर्मयुगपदेव विवक्षा क्रियते तदाऽसौ निम्रन्थो जीवः प्राण इति जीव इति सत्त्व इति विज्ञ इति वेद इति सर्वैरेव पदैर्व्यवहतुं शक्यते एवेति भावः, निगमनवाक्यमिदम् । निर्ग्रन्थो जीवः प्राणादिपदेन व्यवहियते तत्र किं कारणमित्याशयेन पृच्छति-' से केणटेणं' इत्यादि, ‘से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ से गं' तत् केनार्थेन हे भदन्त ! एवमुच्यते स खलु-निग्रन्थो जीवः 'पाणेति वत्तव्यं सिया' प्राण इति वक्तव्यं स्यात् 'जाव वेदेत्ति वत्तव्यं सिया' यावत् वेद इति वक्तव्यं स्यात् , निग्रन्थजीवस्य प्राणादि शब्दव्यवहारे किं कारणमिति प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'जम्हा आणमइ वा' यस्मात् कारणात् निर्ग्रन्थजीव आनिति-आननक्रियां करोति द्वारा भी व्यवहार हो सकता है । ( पाणे, भूए, जीवे, सत्ते विष्णू, वेदे त्ति वत्सव्वं सिया) और जिस समय उच्छ्वास आदि धर्मों से युक्तता की युगपत ( एकसाथ ) विवक्षा की जाती है उस समय वह निर्ग्रन्थ जीव प्राण, भूत, जीव, सत्त्व, विज्ञ, और वेद, इन सब ही शब्दों द्वारा कहा जा सकता है । यह निर्गमन ( समाप्ति ) वाक्य हैं। इसमें क्या कारण है-इसी आशय से प्रेरित होकर गौतम स्वामी प्रभु से पूछते हैं(से केगडेणं भंते ! एवं पुच्चह से णं पाणेत्ति वत्तव्वं सिया, जाव वेयो त्ति वत्तव्वं सिया ) हे भदन्त ! यह आप किस कारण से कहते हैं कि वह मुनि जीव प्राण इस शब्द से कहा जा सकता है यावत् वह ( वेद) इस शब्द से कहा जा सकता है ? तात्पर्य यह कि निय॑न्ध जीव प्राणादि शब्दों द्वारा कहने में क्या कारण है ? इसका उत्तर देते हुए प्रभु कहते हैं ( गोयमा ! ) हे गौतम ! ( जम्हा) जिस कारण (आणमइ) निर्ग्रन्थ डाय त्यारे तर भाटे “३४" Av४ा प्रयोग ५५] ४२२ २४14 छ. " पाणे, भए, जीये, सत्ते, विष्णू वेदेत्ति वत्तव्वं सिया” भने ल्यारे श्वासोश्वास વગેરે ધર્મોથી યુક્ત પશુની એક સાથે વિવક્ષા કરાતી હોય છે ત્યારે તે શ્રમણ નિગ્રંથ છવને માટે પ્રાણુ, ભૂત, જીવ, સત્વ, વિજ્ઞ અને વેદ એ છએ શબ્દનો પ્રાગ થઈ શકે છે. આ નિર્ગમન (સમાપ્તિ) વાક્ય છે. તેનું કારણ જાણવાના म्भाशयथा गौतम स्वामी महावीर प्रभुन पूछे छ“से केणदेणं भंते ! एवं. वुच्चइ से गं पाणेत्ति वत्तव्व सिया, जाव वेगोत्ति वत्तवं सिया " - વન! આપ શા કારણે એવું કહે છે કે તે શ્રમણ નિગ્રથને પ્રાણ, ભૂત, જીવ, સવ, વિશ, અને વેદ કહી શકાય છે? તેને ઉત્તર મહાવીર પ્રભુ આ પ્રમાણે मापे छ " गोयमा ! '' गौतम! "जम्हा" २ ४.२ " आणमह वा पाण.
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨