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________________ ४५८ भगवतीसूत्रे 'गंधमंताई' गन्धवन्ति, सुरम्यादिगन्धयुक्तानि, ' रसमंताई' रसवन्ति, तिक्तादि रसयुक्तानि 'फासमंताई' स्पर्शवन्ति, ककशकठोरादिस्पर्शयुक्तानि द्रव्याणि, 'आनमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा नोससंति' आनन्ति वा प्राणन्ति वा उच्छ्वसन्ति वा निःश्वसन्ति वा, प्रश्नयति 'जाई' इत्यादि । 'जाई भावओ वष्णमंताई' यानि द्रव्याणि भावतो वर्णवन्ति-वर्णयुक्तानि 'आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति नीससंति वा ' आनन्ति वा प्राणन्ति वा उच्छ्वसन्ति वा निःश्वसन्ति वा, 'ताई किं एगवण्णाई ' तानि किम् एकवर्णानि-एकवर्णयुक्तानि 'आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा नीससंति वा ' आनन्ति वा प्राणन्ति वा उच्छ्वसन्ति वा निःश्वसन्ति वा, यानि भावतो वर्णयुलानि द्रव्याणि पृथिव्या. आदि वर्ण युक्त, (गंधमंताई ) सुरभि आदि गंधयुक्त, (रसमंताई ) तिक्त आदि रस युक्त, ( फासमंताई ) कर्कश कठोर आदि स्पर्श युक्त द्रव्यों को ( आणमंति वा, पाणमंति वा, उस्ससंति वा, निस्ससंति वा) आभ्यन्तर में श्वासरूप से ग्रहण करते हैं, बाहर में श्वासरूप से ग्रहण करते हैं. भीतर में निवासरूप छोड़ते हैं, बाहर में निःश्वासरूप से छोड़ते हैं । ( जाइं भावओ वण्णमंताई) भाव की अपेक्षा वर्णवाले जिन द्रव्यों को ये जीव (आणमंति वा, पाणमंति वा, उस्ससंति या नीससंति वा ) भीतर बाहर के श्वासरूप में ग्रहण करते हैं और भीतर बाहर में निःश्वासरूप में छोड़ते हैं ( ताई किं एगजण्णाइं आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा नीससंति वा ) तो वे द्रव्य एक वर्णवाले भीतर बाहर के श्वासरूप में ग्रहण किये जाते हैं, भीतर बाहर के निः श्वासरूप में छोड़े जाते हैं क्यो ? यह प्रश्न है और इस का आशय यह है कि ये पृथिव्यादिक एकेन्द्रिय जीव भाव की अपेक्षा वर्णयुक्त जिन " वण्णमंताई" googale qgarmi, “गंधमंताई" सुलि पोरे गंधवागi, “ रसमंताई" तित (ती) वगैरे २४i, " फासमताइं" २ वगेरे २५ini द्रव्याने “ आणमति वा पाणमंति बा, उत्ससंति वा, नीससंति वा" આવ્યન્તર વાસરૂપે લે છે. બહાર શ્વાસ રૂપે લે છે. અંદર નિઃશ્વાસ રૂપે छ। छे, महा२ नि:श्वास ३पे छ। छ, सावन "जाइं भावओ वण्णमंताई" मापनी अपेक्षा वा द्रव्याने ते “ आणमंत वो पाणमंति वा, उस्ससंति वा " नीससति वा” माहास्यन्त२ श्वास ३२ अड ४२ छ भने मावास्यन्त२ नि:श्वास ३पे छ। छे " ताई किं एगवण्णाई आणमंति वा, पाणमति वा उस्तसति वा नीससंति चा" ते द्रव्य शु मे वाणा હોય છે ? તાત્પર્ય એ છે કે પૃથ્વીકાય વગેરે એકેન્દ્રિય જીવે ભાવની અપે શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨
SR No.006316
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1114
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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