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भगवती सूत्रे
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योऽयं लोकान्तः स्पृशत्यलोकान्तं तन्नियमतः स्पृष्टमेव, अधगाहितमेव सविषय मे चानुपूर्यैव स्पृशतीत्यादि, इति भावः, इह यावत् शब्देन पूर्वप्रकरणपठितावभासनपाठः सर्वोपि संग्राह्यः, किन्तु 'ओभासः' इत्यस्य स्थाने 'फुसः' इति पठनीयम् । अथ द्वीपसागरादिस्पर्शनामाह - "दीवंते' इत्यादि, ' दीवंते भंते ! सागरंत फुसइ सागरं वदतं फुसइ " द्वीपान्तो भदन्त ! सागरान्तं स्पृशति सागरान्तोपि द्वीपान्तं स्पृशति किम् ? भगवानाह - 'हंते 'त्यादि, 'हंता जाव नियमा छदिसि फुस त गौतम! यावन्नियमात् षडूदिशं स्पृशति, नियमतो द्वीपान्तः छहों दिशाओं में स्पर्श करता है। अर्थात् जो यह लोकान्त अलोकान्त का स्पर्श करता है सो वह अलोकान्त स्पृष्ट ही होता है, अवगाहित ही होता है, सविषय ही होता है, आनुपूर्वीयुक्त ही होता है तभी जाकर लोकान्त अलोकान्त का स्पर्श करता है, इत्यादि । यहां " यावत् " शब्द से पूर्व प्रकरण में अवभासना के प्रकरण में पठित समस्त पाठ ग्रहण किया गया है। वहां वह पाठ अवभासना के साथ लगाया जाता और यहां वह स्पर्शना के साथ लगेगा इसलिये " ओ भासह " की जगह "फुसह " ऐसा बोलना चाहिये। अब सूत्रकार द्वीप, सागर आदि की स्पर्शना के विषय में कथन करते हुए कहते हैं कि - ( दीवंते भंते ! सागरन्तं फुसइ, सागरंते वि दीवतं फुसइ) हे भदन्त ! क्या सागरान्त दीपान्त का स्पर्श करता है? और क्या द्वीपान्त सागरान्तका स्पर्श करता है ? तब इस प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान् कहते हैं कि - ( हंता जाव नियमा छfi सह ) हां गौतम ! यावत् नियम से छहों दिशाओं का
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જ્યારે લેાકાન્ત અલેાકાન્તને સ્પર્શ કરે છે ત્યારે તે અલેાકાન્ત પૃષ્ઠ જ હાય છે, અવગાહિત જ હાય છે, વિષય જ હોય છે, અને આનુપૂર્વીયુક્ત ४ हाय छे. अहीं “ यावत् " पहथी पूर्वना अवलासनाना अश्शुभां उडेस તમામ પાઠ ગ્રહણ કરવામાં આવ્યા છે. ત્યાં તે સૂત્રપાઠ અવભાસનાને લાગૂ पडे छे न्यारे सहीं ते या स्पर्शनाने लागू पाडवानो छे. ते अर" ओभा· सइ " ने आगे " फुसइ " उडेवु लेहये.
હવે સૂત્રકાર દ્વીપ સાગર વગેરેની સ્પનાના વિષયમાં કથન કરતાં કહે छे है- (दीवंते भंते! सागरत फुसइ, सागरन्ते वि दीवंत फुसइ ?) डे लगवन् ! શુ' સાગરાન્ત દ્વીપાન્તને સ્પર્શ કરે છે ? અને દ્વીપાન્ત સાગરાન્તના સ્પર્શ કરે છે?
उत्तर - (हंता जाव नियमा छद्दिसि फुसइ) डा, गौतम ! यावत् नियमथी છએ દિશાઓના સ્પર્શ કરે છે, એટલે કે નિયમથી સાગરાન્તના દ્વીપાન્ત
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨