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प्रमेयचद्रिन् टीका श० १ ३०९ सू० ७ आधाकर्मस्वरूपनिरूपणम्
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संवृतानगारप्रकरणे अष्टाविंशतितमे सूत्रे कृतं तत एव द्रष्टव्यम् । 'से केणद्वेण जात्र अणुपरियह ' तत्केनार्थेन यावदनुपर्यटति ? भगवानाह - ' गोयमे' त्यादि । 'गोयमा ' हे गौतम! ' आहाकम्मं णं भुंजमाणे ' आधाकर्म खलु भुंजानः 'समणे निग्गंथे' श्रमणो निर्ग्रन्थः ' आयाए धम्मं अइकमइ' आत्मनो धर्ममतिक्रा मति, आत्मनः धर्म = चारित्रधर्म श्रुतधर्मम् अतिक्रामति उल्लंघयति परित्यजतीति भाव:, ' आया धम्मं अइकममाणे ' आत्मनो धर्ममतिक्रामन् स्वकीयचारित्रास्मक परित्यजन् ' पुढविकाइयं पृथिवीकायिक' ' गात्रकंखर' नावकांक्षति नानुकम्पते, ' जाव तसकायं णावकखइ ' यावत् त्रसकायं नावकांक्षति यावत्पदेन - अप्तेजोवायु वनस्पतिकायानां ग्रहणम् । आधाकर्मिकमाहारादिकं भुञ्जानः शतक प्रथम उद्देशक के २८ वें सूत्र में की जा चुका है सो वहां से जान लेना चाहिये । ( से केणद्वेणं जाव अणुपरियह ) हे भदन्त ! यह किस कारण से पूर्वोक्त विशेषण वाले संसार कान्तार में बार २ घूमता रहता है, तो इसका उत्तर देते हुए प्रभु कहते हैं कि - (आहाकम्मं णं भुंजमाणे आधाकर्मिक आहार आदि का सेवन करता हुआ वह ( समणे निग्रांथे ) श्रमण निर्ग्रन्थ ( आयाए धम्मं अइकम) अपने धर्म का उल्लं घन करता है । अर्थात् श्रुत चारित्ररूप जो आत्मा का धर्म है उसका वह परित्याग कर देता है । ( आयाए धम्मं अइक्कममाणे ) अपने चारिश्रात्मक धर्म का उल्लंघन करने वाला - परित्याग कर देने वाला श्रमण निर्ग्रन्थ ( पुढविकाइयं) पृथिवीकायिक जीव की ( णावकखइ ) अनुकंपा नहीं करता है । (जाव तसकार्य णावकखइ) यावत् वह त्रसकाय की रक्षा नहीं करता है। यहां यावत् पद से (अपकाय, तेजःकाय, वायुकाय और प्रथम उद्देशना २८मां सूत्रमां ) उरी छे ते त्यांथी वांथी सेवी. " से केण ण* जाव अणुपरियट्टइ " डे भगवन् ! ते श्रम निर्भथ शा अरणे पूर्वेति विशे. ષષ્ણેાવાળા સ`સાર વનમાં પરિભ્રમણ કર્યાં કરે છે? उत्तर - आहाकम्मं ण भुजमाणे " आधाभि " समणे निग्गंथे " श्रम निर्भथ “ आया धम्मं अइक्कमइ " આત્માના ધ'નું ઉલ્લંધન કરે છે, એટલે કે શ્રુતચારિત્રરૂપ જે આત્માના ધમ છે તેનું આવી સ્થિતિમાં તે પાલન કરી શકતા નથી. आयाए धम्म' अइक्कममाणे " તથા પેાતાના ચારિત્રાત્મક ધર્મનું ઉલ્લંઘન ( પરિત્યાગ ) કરનાર તે શ્રમણ निर्यथ " पुढविकाइयं " पृथ्वी अयि भवानी " णावकखइ " अनुया उरतो नथी-हया पाजतो नथी. " जाव तसकार्य णावकंखइ તથા ત્રસકાય સુધીના कवोनी पाय ते रक्षा कुरतो नथी. भड़ीं " यावत् " पहथी अच्छाय, तेरडाय,
माहाराहिनु सेवन उश्नार
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨
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