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________________ ૨૮૪ भगवती सूत्रे , पयन्ति, उपपत्तिद्वारेण ' एवं परूवेति ' एवं प्ररूपयन्ति, प्ररूपणां कुर्वन्ति भेदकथनतः किमित्याह - एवं खलु एगे जीवे ' एवं खलु एको जीब: ' एगेणं समएणं' एकेन समयेन 'दो आउयाई' द्वे आयुषी, आयुर्द्वयं 'पकरेह' प्रकरोति = बध्नाति, जीवो नाम स्वपर्यांय समूहरूपः स च पर्यायसमुदायात्मको जीवो यदा एकमायुःपर्यायं करोति तदाऽन्यमपि पर्यायं करोत्येव स्वपर्यायत्वाविशेषात् ज्ञानसम्यक्त्वादिपर्यायवत् स्वपर्यांयस्य कर्ता जीव एवेति स्वीकर्तव्यमेव अन्यथा नान्तर में विपरीतरूपता दिखाने के निमित्त सूत्रकार कहते हैंअण्ण उस्थिया णं भंते ! ' इत्यादि । ( टीकार्थ - (अण्णउस्थियाणं भंते!) हे भदन्त ! अन्ययूथिकजन - दूसरे तीर्थकजन ( एवं आइक्खति ) इस प्रकार से सामान्यरूप से कहते हैं ( एवं भासंति ) इस प्रकार से विशेषरूप से कहते हैं । ( एवं पण्णवेंति) ( युक्तियों द्वारा इस प्रकार से समझाते हैं (भेदों के कथनपूर्वक वे इस प्रकार से प्ररूपणा करते हैं - ( एवं खलु कि- ( एगे जीवे एगेणं समरणं) एक जीव एक समय में ( दो आउयाई ) दो आयुओं का ( पकरेइ ) बंध करता है । इस विषय में उनका ऐसा कहना है कि जीव जो है वह अपनी पर्यायों का एक समूहरूप है। अतः वह पर्याय समूहरूप जीव जिस समय एक आयुरूप पर्याय को करता है, उसी समय वह दूसरी भी आयुरूप पर्याय को करता ही है । क्यों कि स्वपर्ययत्व की उसमें अविशेषता है। ज्ञान सम्यक्त्व आदि स्वपर्याय की तरह । तात्पर्य कहने વિપરીતતા બતાવવાને માટે સૂત્રકાર સૂત્ર કહે છે. टीडार्थ - " अण्ण उत्थिया णं भंते ! " ઈત્યાદિ (अण्ण उत्थिया णं भंते!) डे लगवन् ! अन्य यूथिन्नन-अन्य तीर्थि। अन्य भतने भाननारा दो। ( एवं आइक्खंति ) या प्रमाणे सामान्य रीते हे छे, ( एवं भासंति ) या प्रमाणे विशेषज्ञये उडे छे, ( एवं पण्णवेति ) युक्तियो वडे या प्रमाणे सभलवे छे, ( एवं परूवेति ) लेहोना उथन पूर्व या प्रमाणे प्र३या उरे छे - ( एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो आउ. याई पकरेइ ) व ४ समये मे आयुष्यनी गंध मधे छे. या વિષયમાં પરધર્મીઓની માન્યતા એવી છે કે-જીવ પેાતાની પર્યાયેાના એક સમૂહરૂપ છે તેથી પર્યાયસમૂહરૂપ જીવ જે સમયે એક આયુષ્યરૂપ પર્યાય કરે છે, એ જ સમયે તે ખીજી આયુષ્યરૂપ પર્યાય પણ કરે છે. કારણ કે જ્ઞાન સમ્યકત્વ વગેરે સ॰પર્યાયની જેમ તેનામાં સ્વપર્યાયપણાની અવિશેષતા છે. શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨
SR No.006316
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1114
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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