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भगवतीसूत्रे ते च सर्वे देशापेक्षयाऽपि भवन्ति, प्रकारकास्न्येऽपि सर्वशब्दस्य प्रवृत्तिदर्शना दित्यत आह ' कसिण' कृत्स्नाः समस्ता न तु तदेकदेशापेक्षया सर्वे, इत्यर्थः । ते च प्रदेशाः स्वस्वभावरहिताअपि कदाचिद् भवंति, ते स्वस्वभावरहिताः फलोपधायकत्वरूपकारणत्वाभाववन्तोऽपि स्वरूपयोग्यत्वेन तथा व्यवहत्तुम् शक्यते इत्याशयेनाह-" पडिपुण्णा" प्रतिपूर्णाः स्वस्वरूपेणाऽविकलाः फलोपधायकाः देशापेक्ष सब प्रदेशों में धर्मास्तिकायता का बोध होता है-अतःऐसी मान्यता आगमके अनुकूल नहीं है-प्रतिकूल है-इसलिये सर्व शब्द का यहां ऐसा अर्थ नहीं लेना चाहिये किन्तु (कसिणे) कृत्स्न ऐसा अर्थ लेना चहिये क्यों कि सर्व शब्द की प्रकार और कृत्स्न इन अर्थों में प्रवृत्ति देखी गई है-कृत्स्न शब्द का अर्थ है पूरे पूरे सब एक भाग की अपेक्षा सब नहीं किन्तु सर्व प्रकार से पूरे पूरे सब । ऐसे प्रदेश स्वभावरहित भी कदाचित् हो सकते हैं अर्थात् सब पूरे पूरे प्रदेश हो भी और यदि ये अपने २ स्वभाव से भी रहित हों तो उनमें सर्व कृत्स्नता का बाध नहीं आता है और वे धर्मास्तिकायरूप से मानलिये जावेंगे, कारण फलोपधायकत्वरूप (कार्य को सिद्ध करनेवाला) कारण के अभाव में स्वरूप योग्यता होने पर भी ऐसा व्यवहार बन सकता है सो इस बात को निषेध करने के लिये (पडिपुण्णा) यह विशेषण रखा है। यह विशेषण यह प्रगट करता है कि वे सर्वकृत्स्न प्रदेश ऐसे हों कि जो अपने स्वभाव સ્તિકાયતાને બંધ થવાને બદલે દેશપક્ષ સઘળા પ્રદેશમાં ધર્માસ્તિકાયતાને બોધ થાય છે. પણ એ પ્રકારની માન્યતા તે આગમોની વિરૂદ્ધ જાય છે. तथा 'स, शहन मडी सेवा म सेवन नही ५ " कसिणे" 'इन ( स पू) अथ देवो मे , 'रन' मेटले पूरे ५३-टा ભાગોની અપેક્ષાએ પૂરા નહીં પણ સર્વ પ્રકારે સંપૂર્ણ એવા પ્રદેશે કદાચ સ્વભાવ રહિત પણ હોઈ શકે છે એટલે કે સર્વ પૂરે પૂરા પ્રદેશ હોય પણ नतम पात पाताना २१माथी ५४४ २डित डाय तो तेमा सब ‘कृत्स्ना' -સંપૂર્ણતાને બાધ (વધે) આવતું નથી, અને તેમને ધર્માસ્તિકાય રૂપે માનવા પડે, કારણ કે ફલીપધાયકત્વરૂપ કારણના અભાવે સ્વરૂપ યોગ્યતા હોવા છતાં પણ એ વ્યવહાર સંભવી શકે છે. તે એ વાતનું નિરાકરણ ४२वाने भाट “ पडिपुण्णा " ( प्रतिपू) विशेष वा५यु छे. विशेष એવું બતાવે છે કે તે સર્વકૃત્ન (સંપૂર્ણ) પ્રદેશ એવાં હોવા જોઈએ કે જે
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨