________________
१०४०
भगवती धम्मत्थिकाए धम्मत्थिकाए ति वत्तव्वंसिया' एकप्रदेशोनोऽपि च खलु भदन्त ! धर्मास्तिकायो धर्मास्तिकाय इति वक्तव्यं स्यात्-हे भदन्त ! यावत्पर्यन्तम् एकेनापि प्रदेशेन ऊनः धर्मास्तिकायः तावत् किं धर्मास्तिकाय इति शब्देन व्यवहतुं शक्यते किमिति ? भगवानाह-' णो इणट्टे समढे ' नायमर्थ समर्थः इति प्रतिज्ञामात्रेण कथितम् युक्तिस्तु न प्रतिपादिता इति तत्र युक्तिं ज्ञातुं गौतमः पुनः प्रश्नयति ' से केणटे णं' इत्यादिना ' से केणटे णं भंते ! ' तत् केन अर्थेन हे भदन्त ! 'एवमुच्यते 'एगे धम्मत्थिकायस्स पएसे नो धम्मत्थिकाए त्ति वत्तव्वं सिया ' एको धर्मास्तिकायस्य प्रदेशो न धर्मास्तिकाय इति वक्तव्यं स्यात्-' जाव एगपएमूणे वि य णं धम्मत्थिकाए नो धम्मत्थिकाए त्ति वत्तव्वं सिया' यावदेकप्रदेशोनोऽपि च खलु धर्मास्तिकायो न धर्मास्तिकाय इति वक्तव्यं स्यात्-हे भगवन् ! धर्मास्तिहैं । ( एगपएसूणे वि य णं भंते ! धम्मत्थिकाए धम्मत्यिकार सि वत्तव्वं सिया) हे भदन्त! एक प्रदेशन्यून धर्मास्तिकाय क्या(धर्मास्तिकाय) इस शब्दद्वारा कहा जा सकता है? इसके उत्तर में प्रभुने कहा (गोयमा!) हे गौतम ! ( णो इणढे समढे ) यह अर्थ समर्थ नहीं है । इस प्रकार प्रभु का कथन सुनकर इस विषय में युक्ति की जिज्ञासा वाले गौतम ने पूछा ( से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ ) हे भदन्त ! आप ऐसा किस कारण से कहते हैं कि (एगे धम्मत्थिकायस्स पएसे नो धम्मस्थिकाए त्ति वत्तव्वं सिया, जाव एगपएसूणे वि य णं धम्मत्थिकाए नो धम्मस्थिकाए त्ति वत्तव्वं सिया ) धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश धर्मास्तिकाय नहीं कहा जा सकता है, यावत् एक प्रदेशन्यून भी धर्मास्तिकाय धर्मास्तिकाय नहीं कहा जा सकता है। अर्थात् धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश તેના કારણ એ છે કે ધર્માસ્તિકાયના અસંખ્યાત પ્રદેશને પણ ધર્માસ્તિકાય કહી शाय नहीं (एगपएसूणे वि य ज भते ! धम्मस्थिकाए धम्मत्थिकाए त्ति वतव्य मिया १) गीतभ स्वामी पूछछ8-“महन्त! मां से प्रदेश साछ। डाय એવા ધર્માસ્તિકાયને માટે “ધર્માસ્તિકાય ” એ પ્રયોગ કરી શકાય ખરો ?
जवान नाम मा छ-(गोयमा ! णो इणट्रे समटे) गौतम ! पात બરાબર નથી-એક ન્યૂન પ્રદેશવાળા ધર્માસ્તિકાયને પણ “ધર્માસ્તિકાય” કહી શકાય નહીં. ભગવાનને આ પ્રકારને જવાબ સાંભળીને તેનું કારણ જાણવાની ज्ञासायी गौतम स्वामी नीयने। प्रश्न पूछे छ-(से केणटेणं भते ! एव वुच्चइ)
महन्त ! मा५ ॥ २२ मे ४ छ। ॐ (एगे धम्मत्थिकास्स पएसे नो धम्मथिकाए त्ति वतव्य सिया जाव एगपएसूणे वि य ण धम्मस्थिकाए नो धम्मत्थिकाए त्ति वतव्य सिया) घास्तियना से प्रशने धर्मास्तिाय ही तो નથી એક પ્રદેશની ન્યૂનતા હોય તે પણ તેને ધર્માસ્તિકાય કહી શકાય નહી
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨