________________
१०२८
_ भगवतीसूत्र जीवोऽवर्णः शुल्कनीलादि वर्णरहितः अगन्धः-सुरभिदुरभिगन्धरहितः अरतो मधुरादिरसवर्जितः अस्पर्शः कर्कशायष्टविधस्पर्शरहितश्चेति । " गुणओ उवभोगगुणे" गुणतः-उपयोगगुणः उपयोगश्चैतन्यम् तत् साकारानाकारभेदेन द्विविधम् तदेव चैतन्यं गुणः कार्यम् यस्य स उपयोगगुणः जीवः यथा धमौस्तिकायादीनां गत्यादिकं कार्यम् तथा जीवस्याऽपि चैतन्यं कार्य जीवस्य चैतन्यम्म ति कारणत्वम् भवतीति भावः। पञ्चास्तिकायान्तर्गतजीवास्तिकायान्तं विविच्य स्थान शाश्वत रहने के कारण वह नित्य भी माना गया है। " भावओ पुण अवण्णे, अगंधे, अरसे, अफासे" भाव की अपेक्षा जीवास्तिकाय में कोई भी वर्ण नहीं है, किसी भी प्रकार का गंध नहीं है, पांच प्रकार के रसों से वह सर्वथा रहित है । आठ प्रकार के स्पर्श में से कोई भी स्पर्श वहां पाया नहीं जाता है। " गुणओ उव भोगगुणे" गुण की अपेक्षा यह उपयोग गुणवाला है। उपयोग नाम चैतन्य को है। शास्त्रों में ऐसा ही कहा है-(आत्मश्चतन्यानुविधायीपरिणामः उपयोगः) मात्मा का चैतन्यानुविधायी जो परिणाम है वह उपयोग है। यह उपयोग साकार और अनाकार के भेद से दो प्रकार का होता है। यह चैतन्यरूप उपयोग जिसका गुण-कार्य है वह उपयोग गुण है। यह उपयोग गुण जीव का है। जिस प्रकार से धर्मास्तिकायादि कों के कार्य मत्यादिक हैं उसी प्रकार से जीव का कार्य चैतन्य है । क्यों कि जीव में ही चैतन्यके प्रति कारणता है। इस प्रकार से पंचास्तिकाय के अन्तगत जीवास्तिकायान्त तक विवेचन करके अब सूत्रकार पुद्गलास्तिकाय पामा माछ. (भावओ पुण अवण्णे, अगंधे, अरसे, अफासे) मानी अपेक्षा જીવાસ્તિકાયમાં કઈ વણ નથી, બે પ્રકારની ગંધમાંની કેઈ ગંધ નથી,પાંચ પ્રકારના રસમાંના કેઈ રસ નથી અને આઠ પ્રકારના સ્પર્શમાંથી કઈ પણ २५ नथी. पण, मध, २४ भने २५शथी तदन २डित छ. ( गुणओ उप ओगगुणे) शुजनी अपेक्षा वास्तिय उपयोग शुशुपाणुछ. उपयोग मेट शेतन्य. शासीमा मेवु छ है ( आत्मनश्चैतन्यानुविधायी परिणाम: उपयोगः) माभानु वैनन्यानुविधायी परिणाम डाय छे तेनु नाम 1 64પાગ છે. તે ઉપગના સાકાર અને અનાકર એવા બે પ્રકાર પડે છે. તે ચૈતન્યરૂપ ઉપયોગ જેને ગુણ (કાય) છે, તે ઉપગગુણ કહેવાય છે જીવમાં આ ઉપ
ગગુણ હોય છે. જેમ ધર્માસ્તિકાયનું કાર્યનું કાર્ય (ગુણ) ગતિ છે, તેમ જીવને ગુણ-જીવનું કાર્ય-રૌતન્ય છે. કારણ કે જીવમાં જ ચૈતન્યને ગુણ હોય છે.
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨