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________________ प्रमेयचन्द्रिकाठीका श. १७.५सू. ११ वानव्यन्तरादीनां स्थितिस्थानादिवर्णनम् ८५३ मूलम् - वाणमंतर - जोइस वेमाणिया जहा भवणवासी, नवरं णाणतं जाणियत्वं जं जस्स जाव अणुत्तरा । सेवं भंते सेवं भंतेत्ति जाव विहरइ ॥ सू० १९ ॥ || पढमसय पंचमो उद्देसो समन्तो ॥ १-२ ॥ छाया - वानव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका यथा भवनवासिनः नवरं नानात्वं ज्ञातव्यं यद् यस्य यावदनुत्तराः तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त । इति यावत् विहरति ।। सू० १९ ॥ ॥ प्रथमशतके यश्च मोद्देशकः समाप्तः १-५॥ 6 टीका- वाणमंतर जोइसवेमाणिया जहा भवणवासी ' वानव्यन्तरज्योति - oadमानिका यथा भवनवासिनः, यथा भवनवासिनो देवा स्थित्यवगाहनादिदशस्वपि स्थानेषु कथितास्तथा वानव्यन्तरज्योतिष्क वैमानिका अपि ज्ञातव्याः । यत्र स्थलेऽसुरकुमारादीनामशीतिर्भङ्गाः कथिताः, यत्र च सप्तविंशतिर्भङ्गाः कथिकेवलज्ञान को छोड़कर चार ज्ञानोंमें भंगका अभाव है। तथा केवलज्ञान में कषायोदय ही नहीं है, क्योंकि वह ज्ञान समस्त कषायों के क्षयके बाद ही प्रादुर्भूत होता है। इसलिये कषायाभावसे ही वहां भङ्गका अभाव है ऐसा जानना चाहिये || सू०१०|| वानव्यन्तरादिप्रकरण अब सूत्रकार वानव्यन्तर आदिकों के स्थितिस्थान आदिको दिखाने के लिये 'वाणमंतर' इत्यादि (वाणमंतर जो इसवेमाणिया जहा भवणवासी) जैसे भवनवासी देव कहे हैं। वैसे ही वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव जानना चाहिये। तात्पर्य यह है कि दश स्थानों में जैसा भवनवासी देवोंका वर्णन किया गया है । उसी तरहसे वानव्यन्तर, ज्योतिषिक और वैमानिक देवोंका भी वर्णन जानना चाहिये। जिस स्थान में असुरकुमार आदिकों के ८० भङ्ग कहे हुए हैं और जिस स्थान में २७ भङ्ग कहे हुए ભાંગાઆના અભાવ હોય છે, જ્યારે કેવળજ્ઞાનમાં કષાયાના ઉયજ હોતા નથી. કારણ કે તે કેવળજ્ઞાન સમસ્ત કાયને ક્ષય થયા પછી જ પ્રકટ થાય છે. તેથી કષાયાભાવના કારણે ત્યાં ભાંગાને અભાવ છે એવું સમજવું. સુ.-૧૦ના વાણવ્ય’તરાક્રિપ્રકરણ હવે સૂત્રકાર વાણવ્ય‘તર આદિ દેવોનાં સ્થિતિસ્થાન વગેરેનુ વર્ણન કરવાને માટે सूत्र उडे छे - " वाणम' तर त्यादि ( वाणमंतर - जोइस - वेमाणिया जहा भवणवासी ) ભવનપતિ દેવેાનાં દસ સ્થાનાનું જેવું: વર્ણન કર્યું છે એવુંજ વન વાણવ્યંતર જ્યાતિષી અને વૈમાનિક દેવાનું પણ સમજવું જે સ્થાનમાં અસુરાકુમારાદિના ૮૦ભાગા શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧
SR No.006315
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages879
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size52 MB
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