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प्रमेयचन्द्रिकाटीका श.१ उ. ४ सू०५ छमस्थादीनां सिद्धिप्रकरणम् ७११ केवलेन संवरेण, केवलेन ब्रह्मचर्यवासेन केवलाभिः प्रवचनमातृभिरसैत्सीत् , अबुद्ध यावत् सर्वदुःखानामन्तमकार्षीत् ? गौतम ! नायमर्थः समर्थः। तत्केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते तदेव यावदन्तमकार्षीत् ? गौतम ! ये केप्यन्तकराः अन्तिमशरीरिका इत्यादि सूत्र कहते हैं -“छउमत्थेणं भंते !" इत्यादि ।
मूलार्थ गौतमस्वामी भगवान से पूछते हैं कि “ छउमत्थेणं भंते! मणुस्से अणंतं सासयं समयं केवलेणं संजमेणं केवलेणं संवरेणं केवलेणं बंभचेरवासेणं केवलाहिं पवयणमाईहिं सिन्झिसु बुझिसु जाव सव्व दुःखाणं अंतं करिसु" हे भदन्त ! बीते हुए अनन्त शाश्वतं समम में छद्मस्थ मनुष्य केवल संयम से केवल संवर से, केवल ब्रह्मचर्यवाससे
और केवल प्रवचनमाता से सिद्ध हुए हैं यावत् सर्व दुःखों का अंत करने वाले हुए हैं क्या ? भगवान् इसका उत्तर देते हैं कि (गोयमा ! णो इणढे समढे) हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । केवल संयमादिक से कोई भी सिद्ध नहीं हुआ है, इसमें कारण क्या है ? इसबात को पूछते हुए गौतमस्वामी प्रभुसे प्रश्न करते हैं कि (से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ तं चेव जाव अंतं करिसु) हे भदन्त ! आप ऐसा किस कारण से कहते हैं कि केवल संयमादि से कोई भी छमस्थ सिद्ध नहीं हुआ है यावत् वह सब दुःखों का अंत करने वाला नहीं हुआ है। इस का उसर देते हुए भगवान् कहते हैं कि (गोयमा) हे गौतम ! (जे केइ अंतकरा अंतिम भंते !" त्या सूत्र ४९ छ “ छ उमत्थेणं भते" त्यादि.
भूसाथ---गौतभस्वामी भावानने पूछे छ “छउमत्थेणं भंते! अणंत सासय समय केवलेणं संजमेणं केवलेणं संवरेणं केवलेणं बंभचेर वासेणं केवलाहिं पक्यण माईहिं सिझिसु वुझिसु जाव सम्बदुक्खाणं अंत कारेंसु" महन्त ! વીતેલા અનંત શાશ્વત સમયમાં છદ્મસ્થ મનુષ્ય કેવલ સંયમથી, કેવલ સંવરથી, કેવલ બ્રહ્મચયવાસથી અને કેવલ પ્રવચનમતાથી સિદ્ધ થયા છે? યાવત્ સર્વ દુઃખના અંત કરનાર થયા છે શું? ભગવન તેને ઉત્તર આપતાં કહે છે કે" गोयमा! णो इणटे समटे" गौतम ! मे म सरासर नथी. अर्थात સંયમાદિકથી કઈ પણ સિદ્ધ થયેલ નથી. તેનું શું કારણ છે? એ વાતને पूछतां गौतभस्वामी शथी मावान ने पूछे छे ॐ " से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ तं चेत्र जाव अंतकरिसु" हे सगवान् ! मा५ येवु ॥ २४थी ही છે કે કેવળ સંયમાદિથી કઈ પણ છવાસ્થ સિદ્ધ થયા નથી યાવતુ તે સર્વ દુઃખના અંત કરનાર થયા નથી ? ભગવાન તેને ઉત્તર આપતાં કહે છે કે" गोयमा !" गीतम! " जे केइ अंतकरा अंतिमसरीरिया वा जाव सव्वदुःखा
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧